भागीरथी-डा.उमाशंकरशुक्ल'शितिकंठ'

रचनाकार संख्‍या 12


*सवैयाः
1.
शुभ्र हिमाचल से मचली,वन-भूमि चली,बनी वन्या-अवन्या।
जान जहान सभी ,जड़-जंगम,जीवन-दायिनि शक्ति अनन्या।
 मुक्ति सुस्वाद ,सुभक्ति-प्रसाद को,बाँटती मुक्त-करों से सुधन्या।
पातक-शूल समूल निवारिणि,नाक की नाक ,नगेश की कन्या।।


2.
ब्रह्म-कमण्डल की सुपुनीत ,सुधामयी उच्छल धार है गंगा।
विष्णु-विरंचि-महेश्वर की,करुणा-कृपा का अवतार है गंगा।
सिद्धि भगीरथ के तप की,भव-ताप-विमुक्ति का द्वार है गंगा।
गोचर भक्ति की धार, अगोचर,शक्ति का प्यार है, प्यार है गंगा।।


*कबित्तः
3.
धाई  गंग - धार हर - हर करती निनाद,
अंतरिक्ष  के  अछोर,ओर-छोर काटती।
लहराती हिल्लोलित,प्रलय-स्वरूप स्फीत,
सगर - सुतों के  पाप  को अथोर डाँटती।
आकर विराजी व्योमकेश-ईश शीश पर,
भू  पर  उतर अघ  - अद्रि पोर  छाँटती।
सुधा-रस-स्नात शुचि,करती वसुंधरा को,
कालुष के  गह्वर -त्रिताप -घोर  पाटती।।


           --डा.उमाशंकरशुक्ल'शितिकंठ'
78,त्रिवेणी नगर-1,डालीगंज रेलवे क्रासिंग,लखनऊ-226020.
मो. 9451065688.


 



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