रचनाकार संख्या -20
गंगा की गोद में पली बढी बेटी
गंगा की दुर्दशा देख रो रही है।
माँ! मेरी गंगा कहाँ चली गई है।
अभी कुछ बर्षो पहले, गंगा निर्मल ता से,
यही तो कल-कल बस रही थी।
आकुल-व्याकुल हा, बिटिया की अँखियाँ,
मायके आकर सुबक रही है।
माँ! तुम तो बताओ? गंगा कहाँ चली गई है?
देख रही है गंगा को, पूछ रही, रह-रहकर सवाल।
कहाँ गई? गंगा की मौजें। कहाँ चली गई है?
काठ की नैया। कहाँ गये वो? छठ के घाट।
कहाँ गए वो? पर्व -त्योहार।
रूठी गई क्यों?गंगा मैया
कहाँ चले गये? मेला-बाजार
माँ! तुम तो सब बतलाओ न।
माँ ने आँसू, छिपा लिए
मौन रहकर मगर, सब कह दिए।
छोटी-छोटी लहरों ने,
बिटिया से व्यथा कह डाली,
चली गई परदेश तुम तो
न जाने क्या किया दुख मैं
सहती रही। कहते-कहते
माँ भी अब सुबक उठी।
गंगा, माँ से अनुराग हमारा
कहाँ खो गया है?
उसकी निर्मल धारा में, कौन सा ग्रहण रख गया है।
मैनें सुना था कभी,
एक बूंद गंगा का ,जन्म जन्म का पाप है लेता है।
एक बूंद दूध माँ का अमृत होता है।
मगर, माँ! यहाँ तो अब उल्टा नजारा दिखता है।
सबको मोक्ष देने वाली को,
खुद ही मोक्ष लेना पर रहा है।
सच-सच बताओ? माँ! क्या
सबकी माँ होने के कारण,
तुम सबको, यह दुख भुगतना
पड़ रहा हैं?
पूनम आनंद
9835265651
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