पनाह देती गंगा -अर्चना श्रीवास्तव

रचनाकार संख्‍या -19


भारत की राष्ट्रीय नदी गंगा।


मोक्ष दायिनी गंगा,भोलेनाथ की जटा में विराजी गंगा।
जन्म से लेकर मरण तक पनाह देती गंगा।


तन मन को शुद्ध करती,
सारे जीवन को निर्मल करती गंगा।
हिमालय की गोद से निकली गंगा, हरि के द्वार में बहती गंगा।


कल कल  छल बहती गंगा,नीर स्वच्छ ले चलती गंगा।
निश्च्छल, निस्वार्थ बहती गंगा।


लेकर सखियों का साथ बहती गंगा 
अलकनंदा,भागीरथी अनेक नाम लिए बहती गंगा।


न करो इसे गंदा,साबुन कचरा से न करो मैला।
मुझे भी सांस लेने दो,मुझे भी जीवन जीने दो।


न डालो इसमें कचरा,मैला,कूड़ा -कर्कट ,
मेरा जीवन न बनाओ नरक।


हे मानव तुमसे अपील है मेरी,
साफ़ रखो इसे न तड़पाओ अब।
न डालो पशु,न डालो अस्थि।


कैसे सांस लूं,कैसे जीऊ।
मुझे भी सांस लेने दो।


मेरे निर्मल पानी से ,होता अभिषेक ईश्वर का।
कैसे चढ़ाउं उस जल को जिसमे डाला तुमने कूड़ा।


ईश्वर भी कैसे ग्रहण करें,उस जल को जिसमे बू आती हो।


हे मानव तुमसे अपील है,न डालो कूड़ा मुझमें ।
बिन सांस न जी पाऊं मै,तुम्हारी हमदम न बन पाऊं मैं।
स्वरचित अर्चना श्रीवास्तव


 



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