नुभूतियों, विचार और चिंतन की मानव जीवन के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है जो आदर्श बनकर उपस्थित परिस्थितियों में संघर्षरत होते हुए भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है , यही जीवन का यथार्थ है । मानव का चिंतन ही साहित्य की सर्जना करता है । साहित्य में जीवन के समस्त पहेलुओं की विवेचना होती है जिसमें एकांगी दृष्टिकोण का स्थान नहीं क्योंकि साहित्य में जीवन की व्यापकता की संस्थापना समाहित है । यह सम्बंध सूत्र परिस्थितियों पर निर्भर करता है और स्वाभाविक रूप से साहित्य पर परिस्थितियों और परिवेश का प्रभाव पड़ता ही है इसीलिए साहित्य में शाश्वत सिद्धांतों के समन्वय के साथ युगानुकूल सामयिकता विद्यमान रहती है । पत्र-पत्रिकाओं ने सदैव से ही समाज के बदलाव और नवीन राहों के दिग्दर्शन, विकास और उद्भावना की तलाश का महती कार्य किया है जो सामान्य प्रक्रिया मात्र नहीं वरन् एक कठिन साधना रही है और हमारी साहित्यिक पत्रिकाओं की परम्परा अत्यंत समृद्धशाली रही है ।
आज बढ़ती तकनीक ,पत्रिकाएं खरीद कर न पढ़ने की प्रवृत्ति और शब्दों के क्षरण होने के कारण पत्रिकाओं का दायित्व और अधिक बढ़ गया है । वर्तमान में लाभ अर्जित करने की प्रतिस्पर्धा जिसमें आभ्यांतरिक साधना के लिए अवकाश नहीं रहा । जहाँ साहित्य की समन्वयात्मक शक्ति और विचारों की सांस्कृतिक दृष्टि को परे रख तात्कालिक हितों को प्रश्रय देने का भय व्याप्त हो तो पत्रिकाओं का जन मानस से आत्मीय रिश्ता कैसे बने, गहन विमर्श और आत्म विश्लेषण का विषय है ।
जब किसी पत्रिका के साथ साहित्यिक शब्द जुड़ जाता है तो बात संस्कृति और संस्कार की आ जाती है । कारण कि साहित्य परिष्कार है । सोच- विचार, चिंतन- मनन,रहन सहन, आदतों आदि में मानवीय परिष्कार का नाम ही संस्कार है । यदि हमें जीवन मूल्यों की रक्षा करना और अपसंस्कृति के संकट से समाज को बचाना है तो ऐसे संक्रमणशील समय में साहित्य के अनुशीलन, विचार, आत्ममंथन और दूर दृष्टि का सम्यक संतुलन ही समस्याओं के निराकरण में प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर सकता है क्योंकि मनुष्य की वृत्तियों और अनुभव के सत्य के आधार पर किया गया रचना कर्म सर्वकालिक और सांस्कृतिक चिंतन को आश्वस्ति प्रदान करने वाला होता है ।
आधुनिक परिवेश की भौतिकवादी संस्कृति ने वैचारिक आत्मरिक्तता को जन्म दिया है । विज्ञापनों का मायाजाल हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और नैतिक मूल्यों का ह्रास कर बाह्य सौन्दर्य के लिए प्रेरित कर रहा है । जबकि सभ्यता और संस्कृति की प्रगति भौतिकता से नहीं आभ्यांतरिक विकास से होती है । अतः सांस्कृतिक अवमूल्यन की रक्षा के लिए साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन, संरक्षण और संबर्द्धन को प्रोत्साहित करना हमारा कर्तव्य बन जाता है।
कान्ति शुक्ला'उर्मि' अयोध्या नगर बाईपास भोपाल
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