संगम घाट-सत्यनारायण सिंह

रचनाकार संख्‍या -15


संगम घाट सजे पटवास जहाँ नर संग करें सुर वास।
संत समाज विराजत आज सजे सब मंच यथा जनवास।
ज्ञान बहे बन गंग तथा नव भक्ति जहाँ करती उरवास।
धर्म पले नित कर्म फले जहँ ज्ञान बढाय रहा विसवास ।।


तीरथ राज प्रयाग सुदृश्य निहार लजाय रहा सुरलोक।
मानुष जात सु कौन कहे सुर मोहित आज छबी अवलोक।
कुंभ लगा अति भव्य धरा अवगाहन दिव्य बना इहलोक।
हेम प्रभा बिखराय निशा शुचि भाग जगाय रही परलोक।।


रविराज किये घर मक्र प्रवेश घडी उतरायण की शुभदायी।
बदली नभ छाय रही उड के सखि आय गयी खिचड़ी सुखदायी।
छलकी गगरी रस बूँद सुधा नगरी वह कुंभ रही कहलायी।
तट संगम भीड महा उमडी सुर संत समाज रहा दिखलायी।।


मन धीरज राख भजो प्रभु को तजिये न कभी प्रभु को अकुताई।
जल गंग नहा नर पुण्य कमा पद मोक्ष लहें भजके प्रभुताई ।
भव सिंधु तरे नर कुंभ नहा अघ मूल समूल नसै जडताई।
महती महिमा जग में इसकी श्रुति वेद पुराण कहे महताई।।


सत्यनारायण सिंह


 



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