संकट के बादल - दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश " कोलकाता

“ वह औरत तो मां ही होती है ”
दुःखों का पहाड़ जिस पर  होता है
संकट के बादल मंडराते हैं
थकती  नहीं कभी काम से
फिर भी सदा मुस्कुराती है
वह औरत तो मां ही होती है
हर कष्ट बच्चे के लिए  सहती है
भूखे ना कहीं सो जाए लाल मेरा
इसीलिए कभी-कभी अपना इज्जत और
सम्मान भी दांव पर लगाती है
वह औरत तो मां ही होती है
पढ़े-लिखे बने नवाब
ऊंचा हो जग में उसका नाम
मैं रहूं भले भिखारन या आभागन
यह जो सोचती रहती है
वह औरत मां कहलाती है
अपने-अपने भले फटे चिथड़े
खाए जो भी रुखा-सूखा
पर अपने बच्चे को अच्छा खाना
नए वस्त्र दिलवाती  है
वह औरत तो मां ही होती है
खाती है कभी डांट सास की
या अपमान का घूंट वो पीती है
फिर भी उफ न कहती है
लाल का जीवन बर्बाद ना हो जाए
सदा ही सोचती रहती है
वह औरत तो मां ही होती है
अपना सुख रख देती ताक पर
बच्चे के दुःख से दुःखी होती है
लग जाए उसे खरोंच कहीं
तो जार-जार वो रोती है
वह औरत तो मां ही होती है
करना नहीं कोई  तीरथ
जाना नहीं कोई धाम
मां चरणों की पूजा सुबह शाम
"दीनेश" करता जिसको नमन
वह औरत तो मां ही होती है
वह औरत तो मां ही होती है


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