रचनाकार संख्या -18
तू सरल- सरल,
तू विमल - विमल।
तापसबाला, गंगा निर्मल!
कल-कल, कल-कल
छल- छल-छल-छल।
लघु - वयसि बालाचंचल।
सर्पिल-सर्पिल, घुर्मिल तरंग,
भर देती हिय में नव उमंग।
स्वर्णिम- स्वर्णिम है तेरा रंग,
श्वेताम्बर फहरे अंग-अंग!
तन्वंगी , कोमल, मृदुल - गात,
उज्ज्वल ऐसी, ज्यों प्रभात!
पल-पल लहरे , फहरे आंचल,
रह- रह कर छेड़े मृदुल बात!
उठती हैं लहरें बार-बार,
सुनकर मेरे दिल की पुकार,
करने आलिंगन और प्यार।
दौड़ी आती तू माँ उदार!
शिकता से उज्ज्वल है कगार ,
करुणा की तू है पारावार,
करने को तारण साठ हजार,
हरि चरण छोड़ आई उदार!
कितने पापी को दिया त्राण,
कर अनघ दिया तूने मोक्ष दान!
करते रहे हम तेरा वरण,
तेरे जल से होता है तरण!
जन्म- मरण व्रत - त्योहार,
साक्षी कर्मों की तू बार-बार!
हे माँ तुझको शत-शत नमन,
कर देना मेरा भी तरण!
तुझ में मिलूँ, हो देह- क्षरण,
कर लेना पुत्री को वरण!
पति कर से हो मेराअग्निदान।
तेरे तट पर पाऊँ निर्वाण!
अंतिम चाहत, अभिलाष यही,
तट पर तेरे मेरा छूटे प्राण,
तट पर तेरे मेरा छूटे प्राण।
तट पर तेरे मेरा छूटे प्राण........
तट पर तेरे मेरा छूटे प्राण.....!!!!!!
डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव
पटना - बिहार
9576815977
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