रचनाकार संख्या -17
हे गङ्गा मैया! कैसे मैं तुझको ध्याऊँ?
हे कल्याणी माँ! कैसे तेरा वंदन कर पाऊँ?
व्यथित है मन मेरा देख तेरी दुर्दशा,
नमन माँ तुझको कैसे धो लेती तू सबकी व्यथा!
नहीं समझ माँ तेरी सन्तानों को,
नित कर रहे मलिन तुझे।
घर का कूड़ा करकट, फैक्ट्रियों का कचरा,
गन्दे नालों की मलिनता से विदीर्ण हो रहा हृदय तेरा।
मूर्ख मानव नहीं समझ सका 2013 का इशारा तेरा,
तेरे रौद्र रूप की एक झलक से कितना कुछ झेला;
फिर भी नहीं थम रहा है तेरी तबाही का खेला।
क्षुब्ध होंगे भगीरथ भी अपनी करनी पर,
सोचते होंगे , क्यों किया मजबूर तुझे, उतरने इस धरती पर।
मूर्ख सन्तानों की नादानीसे कितनी प्रताड़ित होगी तुम माँ,
बस करो सहनशीलता, गोमुख में ही अन्तर्ध्यान हो जाओ माँ।
रोएगी-तड़पेगी जब मूर्ख संतान तेरी,
लेगी संकल्प तेरी स्वच्छता को सँजोने की।
करेगी तपस्या जब भगीरथ जैसी,तब तुम पुनः प्रकट होना माँ
कल -कल छल -छल करती तब तुम प्राणदायिनी बन,
इस धरा पर अविरल प्रेम सुधा बरसाना माँ।
माधुरी भट्ट
समाज सेवी , शिक्षिका
पटना बिहार
98 35470102
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