आज वो अपने जीवन के साठ दशक पार कर रहा था।ईश्वर नाम अनुरूप ही कर्म भी करता था। मस्त मौला, जीवन से भरा भरा है ईश्वर।ये साठ दशक यूँ तो उसने परिवार में ही गुज़ारे थे मगर जीवन की आपा धापी में इतना उलझा रहा था कि ख़ुद से ही दूर रहा,नितांत अकेला।बचपन से ही उसे संगीत का शौक रहा था मगर कहीं सीख सके ये पढ़ाई और नौकरी के साथ सँभव ही नहीं हो पाया था। आज सुबह वह जब बाग़ीचे में टहलने गया तो गुनगुनाने लगा। थक कर जब बेंच पर बैठा तो गाने लगा था।आसपास कोई नहीं है यह देख उन्मुक्त कंठ से उसकी मधुर आवाज़ बाग़ीचे के पुष्पों को भी झूमने पर मज़बूर कर रही थी।
आँख खोली जब उसने तो अपने समक्ष एक महिला को बैठे देख झेंप सा गया था वो। तब ये नहीं जानता था वो कि उम्र में उससे बड़ी वो महिला जिसे सब आरती बुलाते थे उसके जीवन को रौशन करने वाली ज्योति बन जाएगी।आरती ने पूछा था, "आपने कहीं संगीत सीखा नहीं है, ऐसा प्रतीत हो रहा,मगर आपकी रुचि को नमन।" "जी ,जी, नहीं सीखा,बस शौकिया गाता हूँ, आनंद आता है।" ईश्वर ने जवाब दिया था। "मैं यदि सिखाऊँगी तो सीखेंगे?" ईश्वर एक टक आरती को देखता ही रहा था और कब आरती से संगीत सीखते सीखते अपने से उम्र में पाँच साल बड़ी आरती को उसने अपनी जीवन रेखा बना लिया उसे भी पता नहीं चला था।
एक दिन अचानक आरती ने कहा था, " कल से आप मेरे घर संगीत सीखने मत आना, मैं बाहर जा रही हूँ।" ईश्वर की साँस मानो थम सी गयी थी। आरती ने उसे झकझोर कर कहा,"मैं आपसे ही बोल रही हूँ, सुन रहे हैं।" ईश्वर ने सँभलते हुए कहा, ये तो तुम्हारा ही घर है, बच्चे भी विदेश में हैं,तुमने ही कहा था कि मेरे जैसा शिष्य तुम्हें नहीं मिला न मिलेगा कभी और तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी मुझे सिखाने के लिए, और अभी मेरी तालीम भी पूरी नहीं हुई है,फिर यूँ अचानक,,," बोलते बोलते ईश्वर का गला रुँध गया था। "मगर एक अनाथ आश्रम के कुछ अँधे बच्चों को संगीत शिक्षा देने का निमंत्रण मैंने स्वीकार कर लिया है, इसलिए जा रही हूँ छः माह के लिए।" ,मुस्कुराते हुए आरती ने कहा था । "आप रियाज़ जारी रखना, आकर देखूँगी कितना और क्या सीखा।"ईश्वर बस उसे जाते हुए देखता रहा था।
आज आरती छः माह बाद जब लौटी तो बाग़ीचे के उसी बेंच पर बैठ कर नम आँखों वह ईश्वर का ख़त पढ़ रही थी जो उसके लौटने पर बंद लिफ़ाफ़े में उसके पड़ोसियों ने दिया था।आरती,तुम जब लौटोगी तो मुझे नहीं पाओगी,बहुत बीमार हो गया हूँ, संगीत ही मेरा शौक और जीने का सहारा था जिसकी बदौलत जीवन के साठ दशक आसानी से पार हो गए थे।फिर तुम मिली, संगीत को और मुझे जीवन मिला, कभी कह नहीं पाया तुम्हें और तुम समझ भी नहीं पायी, इस बेनाम रिश्ते को। मगर शायद जब यह ख़त पढ़ोगी तो समझ जाओगी। तुम मेरी जीवन रेखा थी और जब तुम चली गयी हो तो ये जीवन भी अब जा रहा है। तुमको तुम्हारे हर शिष्य में देखना मैं ज़रूर मिलूँगा।"आरती का आँसू ख़त में लिखे ईश्वर के नाम को भिगो गया था।
शुचि 'भवि' भिलाई,छत्तीसगढ़
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