होली विशेष
होलिका दहन की तैयारी जोरो पर थी| यहाँ-वहाँ से बटोर कर लकड़ियों की ढेरी लगा दी गई थी| हमारा परिवार आलू के चिप्स पापड़ बनाने में लगा था| दिन भी कितने रह गये थे| फागुन का उल्लास मौसम में बिखरा था| दोपहर के समय दरवाजा खटका तो यही सोच दरवाजा खोलने गयी कि पड़ोस का कोई होगा| पर सामने पापा के दोस्त खड़े थे| चेहरे पर परेशानी झलकती| दिल अंजानी आशंका से घिर गया| "अंकल, पापा?" मुँह से बस यही निकला|
"श्रीवास्तव जी का एक्सीडेंट हो गया हैं| आप लोग मेरे साथ चलिये|" अंकल की कही बात होली की उमंग को सुला गयी| पापा के पैर में फ्रैक्चर हो गया था| एक्सीडेंट बड़ा था पर ये माँ की आगाध पुजा का ही परिणाम था कि हम पापा को सामने देख रहे थे|पापा ने हमारे परेशान और उदास चेहरे देखे तो हँस कर माहौल बदला," ये क्या मातम फैला रखा हैं| मैं तुम लोगो के सामने ही हूँ| होली तो घर की ही होगी| टेसू के रंगो में घुली|" इतने दर्द में भी पापा का मुस्कुराता चेहरा हमारे मन में भी फागुन के रंग घोल गया|
अंजू निगम देहरादून
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