रचनाकार संख्या - 87
गॉव गली डुबाकर, अब घटने लगी हैं गंगा
राह अब अपनी नई ढूंढने लगी हैं गंगा
जो उतर आई क़भी थी तारने किसी को कही पे
तार कर संसार को,उधर बढ़ने लगी हैं गंगा
शिव की जटाओं में जो रह सकी ना शाम तक
आदमी की क़ैद से बाहर निकलने लगी हैं गंगा
आदमी की काम से नाराज़ ऐसे हो गईं
की आदमी के धाम को बहाने लगीं हैं गंगा
पुकार दीनो की सभी सुन लहरे हो गईं अधीर
गोंद से गोमुख की अब उतरने लगीं हैं गंगा
जिसके किनारों पर सभी बसने लगा हैं कारवाँ
कामी क्रोधी पापी लोभी सबको धोने लगीं हैं गंगा
स्वर्ग में रहतीं क़भी थी देवता के साथ में
तारने संसार को अब नरक में,बहने लगी हैं गंगा
ना छेड़ो ना रोको ना गंदा करो क़भी भी
तो साथ में इंसान के हरदम,बहती रहेंगी गंगा ।।
द्वारा -बिमल तिवारी "आत्मबोध"
ग्राम+डाक-नोनापार जनपद-देवरिया उत्तर प्रदेश भारत 274701
शार्टफिल्म, माडलिंग व फोटोशूट, फैशन शो के लिए
इच्छुक महिलाएं 7068990410 पर मैसेज करें
आगामी लेख/कविता/कहानी के लिए विषय - होली
0 टिप्पणियाँ