अतिथि -नूतन

संस्मरण होली


 


संस्मरण 
पर्व होली का था
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   मुझे याद है वो होली का दिन जो हमारे लिये नई जिन्दगी के रुप में थी ।
 अपना बचपन भला किसे न याद रह्ता। उसमें भी यादों के धरातल सी अतित एक घटित घटना के समान हों । उस वक्त मैं छोटी बालिका थी करीब मेरी आयु सात वर्ष की थी। 
  होली का दिन था हमलोग संयुक्त परिवार के परिवेश में थे ।मेरे पिताजी (श्री तपेश्वर प्रo )छ:भाई थे कुल मिलाकर बड़ा परिवार था।
    पटना के कदमकुआँ स्थित बुद्ध मूर्ति के पीछे हमलोग सभी रह्ते थे। हमारे दादा जी लाला अनुग्रह नारायण  एवं दादी जी रुक्मिणी देवी एवं पर दादी शारदा देवी जिन्हें हम सभी भाई बहनें उन्हें  पूजा दादी कहा करते थे । हमारे पिताजी अपने भाइयों में तीसरे स्थान पर थे । बड़े पापा नागेश्वर प्रसाद वर्मा बड़ी माँ अन्नपूर्णा देवी उनके नौ बच्चे ।मँझले पापा उमेश्वर प्रसाद सिन्हा मन्झली माँ सरोज देवी उनके सात बच्चे ।मेरे पापा तपेश्वर प्रसाद सिन्हा मेरी माता नयनतारा देवी हमलोग चार भाई बहनें एवं कन्झ्ले पापा सिद्धेश्वर प्रसाद सिन्हा कन्झली माँ सुधा देवी के चार बच्चे बाकी दो चाचा अवधेश प्र सिन्हा एवं नर्वदेश्वर प्रसाद सिन्हा (पांचवें नम्बर पर की माँ रेनू देवी एवं छोटी माँ संगीता देवी) उस वक्त विवाह नहीं हुई थी फिर भी आज मैं संस्मरण लिख रही हूँ  तो अपनी दोनों छोटी माताओं का नाम  लिखना कैसे भूलूँगी। कुल मिलाकर पच्चीस भाई बहनें चचेरे भाई बहन मिलाकर ।
      हमलोग का संयुक्त परिवार था बड़ा ही खुशहाल और सुखमय जीवन से भरा वातावरण था । बहुत ही अच्छा लगता था सभी लोग जब घर में रह्ते थे, तो ऐसा लगता था मानों कोई बड़ा सा त्योहार या पर्व है । अच्छे -अच्छे पकवान बनते थे। हमलोगों का बचपन बहुत ही प्यारा सा बचपन था ।बिल्कुल अबोध पन सा था ।
          जब दादी हमलोगों की चाय पीती थी तो सभी भाई बहनें उनकी झूठी चाय पीने के लिये लालयित  रह्ते थे। जिस कारण दादी जी को बड़ा सा स्टील के गिलास में चाय लेना पड़ता था ।वो पीती थी, फिर थोड़ी थोड़ी वो अपने सभी पोते पोतियों को दिया करती थी । वो भी एक बड़ा मजेदार प्यार था और दादी के प्रति हम बच्चों का लगाव था।
   देखते -देखते जब होली का पर्व आया, तो उस वक्त होली के समय जब हमलोग दादा जी के चरण छुते थे और उनके चरण पर अबीर रखते थे तो वे आशीर्वाद के रुप में हमलोगों को पच्चीस पैसे दिया करते और ललाट पर अबीर का तिलक लगाया करते थे। 
     मेरे पिताजी की आदत थी होली के समय पटना स्थित सब्जी बाग में बिडला मन्दिर जाने की,क्योंकि वहाँ भगवान कृष्ण और राधे की होली का प्रसंग चलता था इसलिये वे सुनने के लिये प्रत्येक वर्ष होली के दिन जाया करते थे। 
   मेरा अपना एक भाई जो हमसे दो साल का छोटा था ,परन्तु काफी चंचल और नटखट था ।पिताजी दादा जी के कमरे में गये अबीर लगाने के लिये एवं उनका आशीष प्राप्त करने के लिये तो वहीं सभी लोग गपसप करने लगे पारिवारिक प्यार और मिलन ईश्वरीये मिलन की तरह होता है ।वो वहीं जमे रहे। इधर हमारा भाई की नटखट पन तो देखो उसने सोचा की पापा वहीं बिडला मन्दिर चले गये हैं ।वो घर से भाग खड़ा हुआ यानि पश्चिम लोहानीपुर से।उस वक्त उसकी आयु पाँच साल की थी और मैं सात साल की। लेकिन नटखट रहने के कारण उसे काफी देखभाल करनी पड़ती थी ।वो जब भागा तो मैं उसे देख ली मैं सोची की अगर कमरे में जब तक जाकर कहूँगी सबसे तो ये कहाँ चला जायेगा पता भी नहीं चलेगा ।इसलिये मैं उसके पीछे भाग खड़ी हुई। मैं सोची की पकड़ कर ले आऊँगी लेकिन वो चलता ही चला गया ।सन्ध्या का समय करीब चलते चलते छ:बज गये होली का दिन था। सडकों पर काफी भीड़ भाड़ थी ।सभी लोग तो उस वक्त नशे में लीन रह्ते थे। लगता ऐसा की भाँग और शराब के अलावा होली अधूरा है ।बिड़ला मन्दिर हमलोग पहुँच तो गये परन्तु वहाँ पिताजी तो थे नहीं वो तो घर में दादा जी से गप्पें लगा रहे थे ।मेरा भाई जब पापा को नहीं देखा तो वहीं बैठ गया, मन्दिर के बाहर चबूतरे पर। उस वक्त फोन भी नहीं था की घर में फोन कर सकूँ । वो चबूतरा पर बैठा तो उसे नींद आने लगी वो सो गया। ये और बड़ी मुसिबत! क्या करुँ क्या न करुँ ?समझ नहीं पा रही थी। उसे अकेला कैसे छोडूँ कभी डर लगता तो कभी कुछ। इधर घर में हहाकार मच गया था ।दो बच्चे गायब कहाँ चले गये? सारे लोग परेशान होली की खुशियाँ क्षुब्द और रूदन और क्रंदन रुप ले रखा था ।सभी लोग चारो दिशा की ओर हमलोगों को ढूँढने के लिये निकल पड़े । मेरे हाथ में एक पैसे भी नहीं थे ।मेरा भाई कभी सोता तो कभी रोता कभी कुछ कहता कुछ खाने को मांगता तो कभी पीने को पानी मुझे गुस्सा भी आता उसपर तो कभी मोह माया ।
   वहाँ आने जाने वाले व्यक्ति को कुछ लगा की ये बच्चे खोये हुये हैं ,तो वो मुझसे पूछते की घर कहाँ  है ?बताओ बाबू लेकिन मुझे डर लग रहा था। मैने उनलोगों से कहा की नहीं !! पापा आने वाले हैं ।
    एक सज्जन व्यक्ति ने की दुकान मन्दिर के ठीक सामने थी , लगा जैसे वे मेरी परेशानी को भाँप गये थे ।उन्हें कुछ एहसास हुआ की ये बच्चे लोग भटक गये हैं ।उन्होनें बड़े ही प्यार मय दृष्टि कोण से पूछा बेटा!--तुमलोग कुछ खाओगे? मैं कही नहीं खाऊँगी ।मेरा भाई तो थका हारा था बेखबर नींद में सो रहा था । वे सज्जन व्यक्ति ने कहा की बेटी तुम इसे अपने पीठ पर लादकर यहाँ से ले जाओ रात हो रही है फिर ज्यादा रात हो जायेगी तो दिक्कत होगी लौटने में । जब उन्होनें ये बात कही तो मुझे उनकी बात जँच  गयी। मैं उसे जय कन्हैया लाल की मदन गोपाल की करते हुये पीठ पर लादते हुये वहाँ  से चल दी । वो सज्जन व्यक्ति ने मुझे दो विस्किट दिया और पानी दिया और कहा जा बेटा धीरे धीरे चली जा ।मैं विस्किट ले ली उनसे और चल दी । 
   चलते चलते जब कदम कुआँ चौराहे पर पहुँची तो तब तक भाई मेरा जाग गया कहने लगा पानी पियुँगा ,तो मैं उसे पीठ पर  से उतार कर अपनी हाथों के सहारे सड़क पर के नल से बहते पानी पिलाने की कोशिश करने लगी । उसी वक्त मेरी बड़ी बहन की नजर पड़ी (जो पिताजी के साथ हमलोगों को ढूँढने निकली हुई थी) उसे हम दोनों पर तो, वो कही पापा को पापा पापा  मिल गया मिल गया खुशी से उछल पड़ी । तभी जितने लोग घर से हमें ढूँढने के लिये निकले थे सभी लोग वहाँ  पहुँच गये , फिर घर ले जाकर हमसे सारी बातें पुछी की कैसे क्या हुआ ?मैने उन्हें जब बताया तो घर के सभी लोग मुझे शाबाशी दिये ।
    परन्तु मैं आज भी वे सज्जन व्यक्ति  को याद करती हूँ ।
  हमारा होली पर्व वास्तव में खुशियों का त्योहार है साथ ही साथ बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है । ये पर्व सभी को  मिलवाने की कोशिश करता है ,जो मैं आज भी मह्सूस करती हूँ । जब भी होली का पर्व आता है ,तो मुझे अपनी ये अतित का दृश्य हमारे स्मृति पटल छा जाती है और मैं यही समझती हूँ की चाहे जितनी भी कठिनाइयाँ आये हमारे जीवन में हमें बुद्धि और विवेक से काम लेना चाहिए।



नूतन सिन्हा
शिक्षिका
लिट्रा वैली स्कूल 
भागवत नगर कुम्हरार 
पटना बिहार ।।


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