बेनाम औरत-माधुरी भट्ट

हाँ !मैं ही वो बेनाम औरत हूँ,
जिसके रूप लावण्य पर ,
किशोरावस्था से ही मंडराते थे गिद्ध सभी।
थे उनमें सौंदर्य के पुजारी भी कई,
दिख जाता था उस वय में निश्छलता का भाव भी,
शायद न था, ऐसा तक़दीर में उनका साथ कभी।


लिया था जन्म ऐसे घरोंदे में,
जहाँ पिटती थी माँ हर रात अँधेरे के साये में लिपट
सुनती थी सिसकियाँ ,आधी रात को गहरी नींद से जग,
पीटती रह जाती थी किवाड़ी समझने को वाक़िया,
बेटी की मर्माहत आवाज़ सुन शायद काट लेती थी दाँतों सेउँगली
भोर होते ही लिपट आँचल से माँ छुपा देती थी दर्द सीने में,
कहकर यह कि बापू ने कर लिया था कुछ नशा अधिक
इसीलिए सिसक रही थी कि हो न जाए बापू को तकलीफ़ कहीं।


समझ जब तक न थी इतनी, समझाती रही बाल मन को ,
युवावस्था ने ली थी अंगड़ाई, अब खुलने लगे थे ज्ञान चक्षु,
मां की विवशता को समझ सकती थी अब ये बेटी पिपासु,
कैसे निकाले माँ को इस भँवर से, हर पल बनी रहती जिज्ञासु।
इसी धुन में निकल पड़ी एक ऐसे सलाहकार के पास,
जिसने न जाने पिलाया कौन सा रस ,और बना दिया बिंदास।


अब तो हर रात होती थी उसकी सुहाग रात ,
रूप और सौंदर्य का तो हर कोई था वहाँ ख़रीददार
क्या इसी को ज़िदगी कहते हैं ,हर रात को नया हमसफ़र
रोज़ सुंदर वस्त्रों में सजधजकर इत्र में हो सराबोर
रौंद जाता एक नया चेहरा बन उसका चहेता भँवर।


गुज़र रही थी ज़िन्दगी कुछ इस क़दर,
न मिला वक़्त सोचने का ,कल की कहाँ थी उसे ख़बर।
हाय रे दुर्भाग्य! ढल गया यौवन अब न ख़ुशबू है न रस,
भूल कर भी नज़र नहीं फेरता कोई मदमस्त भँवर।


बैठ मन्दिर के द्वार पर गिन रही है घड़ियाँ मौत की ,
तरस खाकर दे जाता है कोई दो सूखी रोटियाँ भीख की।
चलने में भी गिर जाती है चक्कर खा कर कभी,
उम्र नहीं हैं ज़्यादा अभी , फिर भी न जाने कौन बीमारी धर गई,
इतने भँवरों ने है मसला,न जाने कब किसकी जानलेवा सौगात मिल गई।


हाँ !मैं वही तरुणी हूँ जिसके गदराए जिस्म पर ,
रसभरे अधरों का पान कर थकते न थे तुमकभी


अब दूर से हिक़ारत भरी नज़र से कह देते हो,
न जाने कौन बेनाम औरत है मन्दिर के द्वार पर सिमटी हुई!


 


माधुरी भट्ट, शिक्षिका पटना बिहार


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