चढ़ा  फागुनी  रंग - कान्ति शुक्‍ला

होली विशेष - 01


कुहके कोयल बाग में,  दहके विपिन पलाश ।
गेंहूं  की बाली हँसे , दिनकर प्रखर प्रकाश ।
दिनकर प्रखर प्रकाश,  पीत सरसों  है फूले ।
चढ़ा  फागुनी  रंग, फूल पर भँवरे  झूले ।
मोहक मदिर वसंत,  धरा का कण-कण  बहके ।
निरख मंजरी आम, बाग में  कोयल कुहके  ।


धानी आँचल  धरा का , उड़ता है स्वच्छंद ।
ऋतु वसंत  उल्लासमय, लिखती मधुरिम छंद ।
लिखती मधुरिम छंद,  भाव के  बंधन टूटे ।
हुई कल्पना  मुग्ध , सजाए शब्द  अनूठे।
पीला उड़े पराग , हुआ कवि मन भी चंचल ।
लिखवाता नव काव्य,  धरा का धानी आँचल ।


किसलय नव आने लगे, पुष्पों  के  मृदु गात ।
पर्ण पीत उड़ कर करें, रोष भरे आघात ।
रोष भरे आघात,  रीत है यही प्रकृति की।
क्षणभंगुर  अस्तित्व,  यही गति सदा नियति की ।
आया नवल वसंत, साथ में  वैभव अतिशय ।
पहन अरुण परिधान,  लगे आने नव किसलय ।


कान्ति शुक्ला, भोपाल मध्‍य प्रदेश
प्रधान संपादक साहित्‍य सरोज


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