दो उंगलियों का गुलाल-डॉ   कीर्ति अवस्थी

होली विशेष


 होली फिर आ गई। नई उमंगों, नए रंगों के साथ। मन में हिलोरें उठती कि इस बार कुछ नया किया जाएगा। लेकिन नया कुछ नहीं होता-वहीं लड़कों का चंदा जमा करना, वसंत पंचमी के दिन से गांव के बीचों-बीच लकड़ियां इकट्ठा करना। किसी के घर से तुरंत चंदा मिलना तो किसी के घर से 'फिर आना', 'अभी छुट्टा नहीं है' जैसी बातें सुनना। ठंडाई की तैयारी, भड़काऊ गानों वाला डी जे, रंगों से भरे ड्रम, छिपकर पीने वालों के बहाने। कुछ भी तो नया नहीं है ठीक वैसे, जैसे उसके गालों पर दो उंगलियों से लगाए गए गुलाल की याद आज भी वैसी की वैसी ही है। जाने कब से वह उन दो उंगलियों का गुलाल संभाले बैठी है मानो गुलाल गालों पर नहीं उसकी आत्मा पर लगा हो। कहने को तो बीस बरस बीत गए और अब तो जाने 'वो' कहाँ होगा? पता भी नहीं लेकिन हर साल की होली उसे उसकी याद दिला देती है।वह चौंक उठती कि यह अब कौन छू गया उसे अचानक अकेले में। त्योहार के थकाऊ काम, पति का गुस्सैल स्वभाव, चार-चार बच्चों के नखरे और सास के तानों की व्यस्तताओं में भी दो उंगलियों का गुलाल उसे मुस्कुराने की वजह दे देता। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। वह साल भर अपने मन को कहीं दूर दरिया में ताला मार कर फेंक आती और वो यादें भी उसकी बड़ी आज्ञाकारी रहती। उसके पास ज़रा भी न फटकतीं। मगर होली में तो वे सब कसम खाए रहती कि 'लाख रोक लो बीबी हम न मानेंगे।' और होता भी वही- सारी यादें आती उसे गुदगुदातीं और चुपचाप वापस चली जाती जैसे ये कल की बात हो।


गाँव में उसके पड़ोस वाली चाची का घर जहाँ वह छत के रास्ते आती-जाती थी। वह भी वहाँ आता। बड़ी शालीनता से बैठता, न किशोरों वाली चेष्टाएं न ही बेमतलब की बातें, जैसी उस उम्र में आम होती हैं। और इधर इसका भी जाना खूब होता क्योंकि ये ऐसा समय था जब पड़ोस और रिश्तेदारी समान होते थे। पाहुन किसी के आए, विदाई सभी करते। रिश्ता हो या नहीं ननद सा मान बगल के घर की बेटी को भी दिया जाता। बताना कठिन कि कौन अपना और कौन पराया? तो यह भी खूब जाती थी चाची के यहाँ।  हँसी-मजाक होता, ठिल्लबाजी भी खूब होती। भीड़ सभी की रहती पर ऐसी नहीं कि कोई किसी पर अश्लीलता का आरोप लगाए। उसी भीड़ में जाने कब नजरें टकराई? कब रजामंदी हो गई? कब प्यार हो गया? न वो जान पाया न यह जान पाई। बढ़ते-बढ़ते अब बात केवल इतनी ही बढ़ी कि अब आने पर वो पानी माँग लिया करता और यह उठकर पानी का गिलास पकड़ाती। जरा उंगलियां भर छू जाएं तो पूरे शरीर पर असर होता- तेज धड़कनें और शर्म से झुकी नजरें। दो पल को दुनिया कितनी सुंदर हो  जाती। वह बाराहवीं पास और बी ए का फॉर्म भरने की तैयारी, यह दसवीं पास और ग्यारहवीं  की तैयारी। अपनी बातें बड़ी चतुराई से प्रेषित करता, 'चाची आशीर्वाद दो कि बी ए के साथ कहीं नौकरी भी लग जाए। वैसे कई जगहों पर अर्जी दे रखी है देखो क्या होता है? एक बार अपने पैरों पर खड़े हो जाए तो सब काम बन जाए।आखिरी शब्दों पर उसका ज्यादा ही बल रहता। वह चेहरा घुमा कर खुश हो जाती। एक दूसरे की सीमाओं का सम्मान करते दोनों अब कुछ बात भी कर लेते। लेकिन ज्यादातर बातों में किसी और को भी शामिल कर लिया जाता। अनजाने ही वह बेचारा दोनों के बीच की सूचनाएं या कहें प्रेम का आदान प्रदान कराता रहता। अब तो हर तीसरे दिन वह आता। जो न आता तो यह जल बिन मछली जैसी तड़पती।


होली आने को थी। चाची छत पर पापड़ बनाती तो यह भी मदद के बहाने जाती रहती। उस दिन घर पर कोई नहीं था सिवाय बूढ़ी चाची के। यह गई और वह भी आ गया। दैव योग से बूंदा-बांदी भी शुरू। घुटनों से लाचार चाची ने दोनों को दौड़ा दिया छत पर पड़े चिप्स-पापड़ बटोर कर कमरे में रखने के लिए। इतने दिनों की तपस्या का मानो आज फल मिलने वाला था। जल्दी-जल्दी सब बटोरा लेकिन अपना मन न बटोर पाए। वह बढ़ी तो उसने रास्ता रोक लिया। दूरी थी लेकिन एक दूसरे की साँसो की गर्माहट महसूस हो रही थी। वह धीरे से झुका उसके कानों के पास आकर फुसफुसाया, 'डरो नहीं, बस इतना बताने आया था कि शहर में नौकरी लग गई है। होली के बाद जाना है। अब देखो कब आना होता है? अगली बार आऊँगा तो भाभी से किसी तरह कह-सुन कर शादी की बात चलाने को कहूँगा।' इतना कहकर वह नीचे चला गया।  मुट्ठी में अपना दुपट्टा मसलती वह बुत बनी वहीं खड़ी रही। बादलों की बूंदे अब शांत थी लेकिन यहाँ आँखों से सैलाब बह रहा था। जाने कितनी देर रोती रही और ध्यान टूटा जब चाची ने जोर से पुकारा। नीचे आई तो वह उदास बैठा था। चाची ने चाय को पूछा तो बोला कि होली पर आएगा। इतना कहकर वह बाहर निकल गया। उसका दिल भर आया। होली को तो दस दिन बाकी है तो क्या दस दिन बाद आएगा? और वही हुआ भी। होली वाले दिन भाग-भाग कर छत पर जाती, चाची के आंगन में झाँकती, फिर दबे पांव लौट आती।  दोपहर बाद चाची के यहाँ  वह भाभी से रंग खेल रहा था। 'भाभी को रंग लगाकर अभी आई'  इतना कहकर छत के रास्ते चाची के आँगन में उतर गई। फिर जब नजरें मिली तो वह जोर से बोला, 'आज रंग लगा लूँ जाने फिर कब मौका मिले?' इतना कहकर उसने भाभी पर रंग उड़ेल दिया। भीगी भाभी नहाने चली गई। चाची के आदेश पर यह रसोई से गुझिया लाने गई तो वह पीछे खड़ा था मुस्कुरा कर बोला, 'अगली होली में देखो तुम्हारा क्या हाल करूँगा?  इतना कहकर उसने दो उंगलियों से गुलाल उसके गाल पर लगा दिया। अगली होली में वह फिर आई चाची के यहाँ लेकिन अब वह ससुराल की हो गई। धीरे-धीरे होलियाँ आती रही, जाती रही लेकिन कुछ नया नहीं था। वही लड़कों का चंदा जमा करना.... वसंत पंचमी के दिन से गांव के बीचों-बीच लकड़ियां इकट्ठा करना।


डॉ   कीर्ति अवस्थी 6 सी, पार्क रोड लखनऊ  226001


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