गंगा पर दोहे - भाऊराव महंत 

मिशन गंगा -98


खुद को मैली देखकर, गंगा हुई उदास। 
निर्मल जलधारा नहीं, पहले जैसी पास।।


02
गंगा तुम भोली बड़ी, करती  सबसे  प्यार। 
सज्जन हो या दुष्ट हो, करती हो उद्धार।।


03
फैली  कैसी  गंदगी ,  गंगा  जी  के  तीर। 
रहा न पीने योग्य भी,निर्मल-शीतल नीर।।


04
धवल-दुग्ध से नीर को, बना दिया विष आज। 
गंगा   को   गंदा   करे,   उद्योगों   का   राज।।


05
गंगा को माँ कह रहे, माँ - सा करें न प्यार।
लाभ हेतु निज मातु की, मोड़ रहे जलधार।।


06
गंगा जल धारा बहे, कल-कल करे निनाद। 
भारत माँ की  वंदना, करती  भर  उन्माद।।


07
पिता हिमालय-सा बड़ा, खेले गंगा गोद। 
इठलाती  या  कूदती, करती  रहे विनोद।।


08
निर्धन अरु धनवान की, जीवन का आधार। 
करती है गंगा नदी, माता  जैसे  प्यार।।


09
मोक्षदायिनी माँ वही, करती पर उपकार। 
छाया तीनों  लोक  में, गंगा  का  विस्तार।।


10
करें विसर्जन अस्थियाँ, गंगा में सब लोग। 
कैसा है  विश्वास यह, कैसा  है  यह  रोग।।


भाऊराव महंत 
बालाघाट मध्यप्रदेश


 


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