घर नहीं आयूँगा- मनोरमा

होली विशेष -44



"मम्मी मैं होली पर नहीं आ पाऊँगा ,ऑफिस से एक दिन की ही छुट्टी मिली है।"बेटे की आवाज में तल्खी थी। "ऐसा क्यों , त्यौहारों पर भी छुट्टी नहीं?क्या फायदा ऐसी नौकरी का जो घर परिवार से भी दूर कर दे।"रूआँसी हो आई थी मृणाल "क्या करूँ मम्मी, प्राइवेट कंपनियाँ निचोड लेती है ।सैलरी कम देंगी पर काम गधों की तरह लेती हैं।जैसे हम इंसान नहीं मशीन.हैं। म़ै तो आज छोड़ देता।पर घर के हालात ऐसे हैं कि...।"
आँखों से आँसू छलक पड़े मृणाल के बेटे की आवाज में छिपे दर्द को महसूस कर अपने को संयत कर बोली ,"अपना ध्यान रखना बेटा। कोई उधर आ रहा होगा तो कुछ नाश्ता भेज दूँगी। कुछ खास बनबाना हो तो बता देना।"फोन रख कर निढाल सी सोफे पे पसर गयी ।उसे याद आये शादी के पहले के तीज त्यौहार । हर त्योहार पर कितनी उमंग चहल -पहल रहती थी। घर में ही चार दिन पहले से पकवान बनने लगते थे। और होली !होली पर तिली के लड्डू ,बेसन के लड्डू, मठरी ,गुझिया ,सेव कितना कुछ बनता था। जब तक घर के देवताओं को भोग न लगता किसी को न मिलता खाने को। हँसी ,चुहल ,मज़ाक, मस्ती ,। रंग से सराबोर ।पूरे दिन होली के रंग उडते रहते थे। फिर माँ की मीठी डाँट ,बीमार पड़ जाओगे ,नहा लो ।कल खेल लेना।और शादी से पहले वाली वो आखिरी होली थी जिसके रंग अभी तक वैसे ही चमकीले ,महकते हुये थे।दिन में होली खेल कर शाम को अड़ोस पडोस के लोग अपने अपने घर में होली मिलन का आयोजन करते थे और गुलाल से होली खेली जाती थी।वैसी ही रंगीन होली थी ।आज उसके घर आयोजन था होली मिलन का। मुहल्ले के कुछ मित्र और भैया के दोस्त फैमिली सहित उसकी दो तीन सहेलियाँ भी आये थे।छत पर गुलाल लगाया जा रहा था। वह नीचे ठंडाई लेने आई ।सीढ़ियों पर उसके ऊपर किसी ने रंग डाला। अर्ररररररर। ये गीला रंग किसने डाला यार । चौंक गयी थी ।देखा मुड़के तो एकदम से पहचान न सकी। आप कौन ?रंग क्यूँ डाला?सारी ठंडाई गिर जाती अभी।
"नहीं गिरती।"कहते हुये लाल गुलाल उसके गालों पर मल दिया। वह शर्म ,झिझक में कुछ न कह सकी।चिल्ला भी न सकती थी।अब भी न पहिचाना? न, असमंजस में थी वह। कभी ऐसे किसी युवक से मिलने का सवाल ही न था।"मयूर ,रानो का भाई"रोज तो देखती हो।
कह कर वह  किसी के आने की आहट सुन छत पर  चला गया।बदन में सिहरन सी दौड़ गयी।खुद को संभालते वह ठंडाई सब को सर्व करने लगी। जब ग्लास मयूर को देने लगी तो अनायास ही उसके हाथ काँप गये। नजर झुक गयी। "कल मिलते हैं।"
रात को सोते वक्त सारा कुछ याद आया। पर मयूर से कभी कोई बात तो नहीं की।कभी देखा भी नहीं उसकी तरफ ,फिर ये गलतफहमी उसे क्यों?मन में मीठी सी गुदगुदी हुई।
रानों के यहाँ आते जाते मुलाकात होने  लगी थी। मन में रंग के गुलाल हर वक्त उड़ते रहते थे। होली के बाद परीक्षाओं की तैयारियों में लग गये। प्यार के फूल खिले ही थे कि उसकी शादी तय हो गयी। वह समझ ही न सकी क्या कहे कैसे रिएक्ट करे। मयूर ने कहा भी कि तुम मना कर दो।बोल दो आगे पढ़ना चाहती हो ।अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हो।पर यह इतना आसान न था। दबे स्वर में कहा भी कि अभी शादी न करनी। आगे पढ़ना है।
बहुत पढ़ लिया।आगे ससुराल जाकर पढ़ना।एक महीने के बाद की तारीख तय हो गयी।
मयूर ने फिर रानो को बताया।उसके घर में बात खुल गयी।तो उसे जबरन घर से बाहर भेज दिया गया।
वह रोज उसका इंतजार करती।शादी के दिन वह रोती रही। विदाई के वक्त बार बार नजर उस घर की खिड़की ,दरवाजे,छत की मुंडेर पर जाकर निराश होकर लौट आती। आखिरी बार नाउम्मीद हो उसने फिर एक नज़र डाली।लगा हल्की सी खुली  खिड़की के पीछे कोई है। शादी के बाद मायके जैसी  होली कभी न हुई।न रंग ,न गुलाल न होली मिलन। उसने ही शगुन का रंग सभी को लगा दिया था। बच्चे बड़े हुये ।कुछ साल बच्चों के कारण होली का उत्साह रहा। बच्चों को कभी न रोका उसने खेलने से। आज बेटा प्राइवेट कंपनी में नोकरी कर रहा है ,बेटी अपने घर की हुई। अब कैसी होली और किसकी होली!!
मृणाल की आँखों से बीती होली आँसू बन बहने लगी।दूर कहीं गीत बज रहा था..."रंग से कोई अंग भिगोये रे कोई अँसुवन से नैन भिगोये.....।



मनोरमा जैन पाखी


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