होली की चंदागिरी-प्रभाशंकर उपाध्‍याय

होली विशेष - 10


 फागुनी बयार के चलते ही मेरे मस्तिष्क में यह फितूर उठा कि होली और चंदा का कोई न कोई गठजोड़ अवश्य है। गौरतलब है कि होली हमेशा पूर्ण चंद्र की रात्रि को ही सम्पन्न होती है। उस रात जब आकाश में चंदा अपनी छटा बिखेरता रहता है तो पृथ्वी पर चंदाबाजों द्वारा उगाया गया चंदा, होली दहन के साथ ही भस्मीभूत हो जाता है। बस, इसी सांठगांठ पर फिलहाल गौर कर रहा हूं, मैं।  मित्रों! हमने जब से होश संभाला है, होली पर चंदा बटोरकों की उमगती टोलियां ही टोलियां देखी हैं। अपने बालपन में अपन लोगों ने भी चंदे उगाहे हैं और आज भी गली-गली, और महल्ले-महल्ले में नयी पीढी के चंदाबाज घूमते नज़र आते हैं।  होली पर रंगबाजी से मुंह चुराना आसान है एवं उसके अनेक तरीके हैं। घर के स्टोर रूम में छिप रहें और घर में नहीं हैं, जैसा सदाबहार जुमला उछलवा दें। बीमार होने का ढोंग रच लें। रंग और अबीर से एलर्जी की दुहाई दे डालें। अधिक भय हो तो शहर से ही दफा हो लें। किन्तु चंदा मांगने वालों से बचना नामुमकिन है। लोगों का कहना है कि होली का उछाह घटा है और मैं कहता हूं, ’’अरे म्यां! होली का उत्साह महसूस करना है तो चंदा-टोली में शामिल होकर देखिये।’’


गर्ज यह कि होली की चंदागिरी के सम्मुख अन्य प्रकार की दादागिरी भी फीकी लगती है। सड़कों पर पत्थर तथा कांटे बिछाकर वाहन आदि रोके जाते हैं। मेरे महल्ले के एक बुजुर्ग चिंतक ने इस दादागिरी का दोष नयी पीढी पेल दिया। मैं बोला, ‘हे परम श्रद्धेय! मैंने अपने बालपन में आपकी पीढी को चंदा वसूलते खूब देखा है। तब आप युवा थे तथा गांवों और कस्बों के मार्गों पर कांटे लटका कर राहगीरों की टोपियां और गमछे उड़ा लेते थे। घर-घर में आप लोगों की टोलियां घुस जाती थीं तथा लकड़ी का जो भी सामान हाथ लगता, उसे उठाकर ले जाते थे। हां, घर की लड़की पर एक भरपूर निगाह डाल कर छोड़ जाते थे। यदि उस कन्या का नाम चंदा या चंद्रकांता हो तो कहना ही क्या ? टोली के लोग जोर जोर से चीखते, ‘चंदा दे...चंदा दे....।’ अगर कोई महिला डपट देती, ‘मरो मरदूदों! क्या तुम्हारी मां-बहनें नहीं हैं क्या?’ तो शोर मचाते, ‘तूतक...तूतक...तूती, मरेगी तू तो सूती....।’ मेरी बात सुनकर बुजुर्गवर खिसियानी हंसी हंसकर खिसक लिये।


 जिस भांति आसमां का चंदा घटता बढता है, उसी प्रकार पृथ्वी के चंदे में भी प्रायः घट-बढ पायी जाती है। अमूमन, गगन के चंदे को ग्रहण लगते रहते हैं तो धरा के चंदे का भी कालेपन से खासा लगाव है। अम्बर के चमकते चंदे को निगलने के लिए राहु-केतु सदा आतुर रहते है तो जमीन के चंदे को हड़पने की जुगत में अनेकानेक राहु-केतु प्रयासरत् रहते हैं। आकाश में विराजित चंदे को हम बड़े चाव से मामा पुकारते हैं तो धरती का चंदा हस्तगत होते ही न जाने कितने मामाओं और काकाओं से भी अधिक प्यारा सिद्ध होता है।   चुनांचे, अब आते हैं असमां और जमीं के चंदाओं की पैदाइश के बिन्दु पर। दोनों ही इस धरती की देन हैं। एक देवों एवं दानवों के दरम्यान हुए समुद्र मंथन से उत्पन्न हुआ था। तब, चमकती हुई उस गोलाकार वस्तु का नामकरण चंदा किया गया था। लक्ष्मीकांत वैष्णव ने लिखा है कि दैत्यों और देवों का समुद्र मंथन का इतना बड़ा प्रोजेक्ट, अवश्य ही चंदा एकत्र करके किया होगा? अतः उस कार्य की स्मृति में उन्होंने उस गोल रूपये जैसी लुभावनी वस्तु का नाम चंदा रख दिया होगा?
  
 तब से आज तक जो भी धार्मिक-गैर धार्मिक, सामाजिक-राजनैतिक आयोजन प्रायः चंदा वसूली से होते आ रहे हैं। यहां एक दीगर बात और है कि यह चंदा आकाश के चंदा की भांति कम लुभावना नहीं है। इसीलिए चंदा जमा करने के गोरखधंधे में असंत और संत जन तक पीछे नहीं हैं। जिस भांति नील गगन का चमकता चंदा धीरे धीरे घटता हुआ अचानक लुप्त हो लेता है, उसी भांति पृथ्वी का चंदा भी एक दिन सहसा नदारद हो जाता है। संभवतः इसीलिए चंदे का ‘राइजिंग फंड’ अपने सही स्थान से ‘डाउन’ होकर अन्यत्र राइज हो लेता है। इसके अलावा, दोनों ही प्रकार के चंदों में और भी नजदीकी संबंध हैं। कविगणों ने सुंदर नारी की उपमा चंदा से की है। मंचीय कवि तो इस बात से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि कवि सम्मेलन अमूमन चंदे के बल पर ही आयोजित किये जाते हैं। उसी चंदे में से उन्हें मानदेय रूपी लिफाफा मिलता है जो उन्हें सुंदर स्त्री से भी अधिक प्यारा प्रतीत होता है। पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले साहित्यकार भी इस बात को  जानते हैं कि उनके पारिश्रमिक के पीछे ग्राहकों के चंदे का अहम हाथ होता है।  एक बात और कि नारी चाहे सुंदर हो या न हो, उसे चांद का संबोधन इस लिये दिया जाता है, क्योंकि वह विवाह के संग जो दहेज लाती है, वह, वर पक्ष हेतु कमनीय चंदा ही तो है।


 वैष्णवजी ने एक बढिया बात और लिखी है। वह यह कि किसी जमाने में चंदा संग्राहक एक चादर फैलाकर निकलते तथा पुकारते जाते थे, ‘चंदा डाल...चंदा डाल...।’ लोग स्वेच्छा से उसमें चंदा डाल दिया करते थे। बाद में जब बलपूर्वक चंदा वसूला जाने लगा तो लोगों ने उन्हें चांडाल कहना शुरू कर दिया।  कतिपय विद्वानों का मानना है कि चंदा बटोरने के इतिहास में गोपनीयता का समावेश गुप्तकाल से आया। कूटनीतिज्ञ कौटिल्य ने नन्द के नाश हेतु, चन्द्रगुप्त के सैन्यवर्धन के लिए अवश्य ही चंदा एकत्र किया होगा? और निश्चित ही उसे गुप्त रखा गया होगा? तभी तो उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में चंदेबाजी का कोई जिक्र नहीं किया।  मजे की बात यह है कि भारतीय राजनीति में सशक्तीकरण हेतु चंदा यानि ’’पार्टीफंड’’ उगाहने और उसकी गोपनीयता बरकरार रखने के तार गुप्त कालीन चाणक्य से लेकर आधुनिक चाणक्य तक अनायास जुड़ गये हैं। 


 आजादी के बाद की हिन्दुस्तानी राजनीति में द्वारका प्रसाद मिश्र उर्फ आधुनिक चाणक्य से पूर्व का पार्टी-चंदा-उगाही-कालखंड प्रायः पारदर्शी माना गया है। घपलों की शुरूआत 1967 के आम चुनावों हेतु एकत्र चंदा अर्थात् मध्यप्रदेश के गुलाबी चना कांड से हुई। तब से अब न जाने कितने सियासी और गैर सियासी चंदा उगे और लुप्त हुए? कदाचित, यमराज के अकाउटेंट चित्रगुप्त के पास उसका कोई लेखा-जोखा हो?
 
 
-प्रभाशंकर उपाध्याय
193, महाराणा प्रताप कॉलोनी,
 सवाईमाधोपुर (राज.)  पिन-322001    


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