होली की शुरुआत- संजय कुमार सुमन

होली विशेष - 17


पूरे भारत में बड़े ही हषोल्लास के साथ होली का पर्व मनाया जाता है, दो दिन तक मनाई जाने वाली होली में पहले दिन होलिका दहन किया जाता है और दूसरे दिन रंगों की होली खेली जाती है। इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई, सबसे पहले किस शहर में हुआ होलिका दहन, इसके बारे में अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। रंगों का महान पर्व होली के एक दिन पहले होलिका दहन होता है। होलिका दहन बुराईयों पर अच्छाई की जीत को दर्शाता है लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि हिरण्यकश्यप की बहन होलिका का दहन बिहार की धरती पर हुआ था। जनश्रुति के मुताबिक तभी से प्रतिवर्ष होलिका दहन की परंपरा की शुरुआत हुई। इस बात में कितना दम है यह वर्णित करना ज़रा मुश्किल है लेकिन इस होली के पीछे होलिका और प्रहलाद जैसे किरदारों की भी एक रोचक कहानी सामने आती है जिसका वर्णन वेदों में किया गया है।पूर्णिया जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर बनमनखी का सिकलीगढ़ धरहरा आज भी उस दिन का जीवंत गवाह है। होलिका का वध यहीं हुआ था। यह स्थल भगवान नरसिंह के अवतार स्थल के रूप में विख्यात है।गर्व का विषय है कि प्रेम व भाईचारे की होली पूर्णिया के देन है। उस दिन को हर साल यादगार बनाने के लिए हजारों की तादाद में सिकलीगढ़ धरहरा में लोग होलिका दहन के लिए जुटते हैं।बनमनखी के धरहरा में आज भी वह खम्बा महजूद है जिसे फाड़ कर नरसिंग भगवान ने हिरण्यकश्यपु का वध किया।आज यह जगह जीर्ण शीर्ण पड़ा हुआ है,इस जगह को आज तक बिहार सरकार पर्यटन स्थल भी घोषित नहीं कर पायी है!  मान्यता है कि बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में ही वह जगह है, जहां होलिका भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर दहकती आग के बीच बैठी थी। ऐसी घटनाओं के बाद ही भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था, जिन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था।


पौराणिक कथाओं के अनुसार, सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्यप का किला था। यहीं भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए एक खंभे से भगवान नरसिंह ने अवतार लिया था। भगवान नरसिंह के अवतार से जुड़ा खंभा (माणिक्य स्तंभ) आज भी यहां मौजूद है। कहा जाता है कि इसे कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया। यह स्तंभ झुक तो गया, पर टूटा नहीं।  प्राचीन काल में 400 एकड़ के दायरे में कई टीले थे, जो अब एक सौ एकड़ में सिमटकर रह गए हैं। पिछले दिनों इन टीलों की खुदाई में कई पुरातन वस्तुएं निकली थीं। धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के 31वें वर्ष के विशेषांक में भी सिकलीगढ़ का खास उल्लेख करते हुए इसे नरसिंह भगवान का अवतार स्थल बताया गया था। इस जगह प्रमाणिकता के लिए कई साक्ष्य हैं। यहीं हिरन नामक नदी बहती है। कुछ


 


वर्षो पहले तक नरसिंह स्तंभ में एक सुराख हुआ करता था, जिसमें पत्थर डालने से वह हिरन नदी में पहुंच जाता था। इसी भूखंड पर भीमेश्वर महादेव का विशाल मंदिर है। मान्यताओं के मुताबिक हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष बराह क्षेत्र का राजा था जो अब नेपाल में पड़ता है।


प्रह्लाद स्तंभ की सेवा के लिए बनाए गए प्रह्लाद स्तंभ विकास ट्रस्ट के अध्यक्ष बद्री प्रसाद साह बताते हैं कि यहां साधुओं का जमावड़ा शुरू से रहा है। वे कहते हैं कि भागवत पुराण (सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय) में भी माणिक्य स्तंभ स्थल का जिक्र है। उसमें कहा गया है कि इसी खंभे से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी। इस स्थल की एक खास विशेषता है कि यहां राख और मिट्टी से होली खेली जाती है। मान्यताओं के मुताबिक जब होलिका भस्म हो गई थी और प्रह्लाद चिता से सकुशल वापस आ गए थे, तब प्रहलाद के समर्थकों ने एक-दूसरे को राख और मिट्टी लगाकर खुशी मनाई थी। तभी से ऐसी होली शुरू हुई।  यहां होलिका दहन के दिन पूरे जिले के अलावा करीब 50 हजार श्रद्धालु होलिका दहन के समय उपस्थित होते हैं और जमकर राख और मिट्टी से होली खेलते हैं। यही कारण है कि इस इलाके में आज भी राख और मिट्टी से होली खेलने की परंपरा है। भक्त प्रहलाद स्तंभ विकास ट्रस्ट की ओर से होलिका दहन कार्यक्रम की तैयारी की गई है। होलिका का विशाल पुतला तैयार किया जा रहा है। गुजरात राज्य के पोरबंदर में विशाल भारत मंदिर है। वहां आज भी यह अंकित है, भगवान नरसिंह का अवतार स्थल, सिकलीगढ़ धरहरा, बनमनखी, जिला पूर्णिया, बिहार। ब्रिटेन की विलकिपेडिया दि फ्री इनसाइक्लोपीडिया और गीता प्रेस गोरखपुर के कल्याण के 31वें वर्ष के तीर्थांग में इस स्थल की महत्ता का जिक्र है।


 आस्था का प्रतीक है स्तंभ धरहरा में भगवान नरसिंह मंदिर परिसर में है प्राचीन स्तंभ। ऐसी धारणा है कि यह स्तंभ उस चौखट का हिस्सा है जहां राजा हिरण्यकश्यप का वध हुआ। यह स्तंभ 12 फीट मोटा और करीब 65 डिग्री पर झुका हुआ है।  19वीं सदी के अंत में एक अंग्रेज पुरातत्वविद यहां आए थे। उन्होंने इस स्तंभ को उखाड़ने का प्रयास किया, लेकिन यह हिला तक नहीं।सन् 1811 में फ्रांसिस बुकानन ने बिहार-बंगाल गजेटियर में इस स्तंभ का उल्लेख करते हुए लिखा कि इस प्रहलाद उद्धारक स्तंभ के प्रति हिन्दू धर्मावलंबियों में असीम श्रद्धा है। इसके बाद वर्ष 1903 में पूर्णिया गजेटियर के संपादक जनरल ओ़ मेली ने भी प्रह्लाद स्तंभ की चर्चा की। मेली ने यह खुलासा भी किया था कि इस स्तंभ की गहराई का पता नहीं लगाया जा सका है।


ऐतिहासिक रूप में होली



राग रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का सन्देश वाहक भी है। चूंकि यह पर्व वसंत ऋतु में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है इसलिए इसे ‘बसंतोत्सव’ और ‘काममहोत्सव’ भी कहा गया है। राग(संगीत) और रंग तो इसके मुख्य अंग तो हैं ही पर इनको अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है । सर्वत्र वातावरण बड़ा ही मनमोहक होता है।  यह त्यौहार फाल्गुन मास में मनाये जाने के कारण ‘फाल्गुनी’ के नाम से भी जाना जाता है और इस मास में चलने वाली बयारों का तो कहना ही क्या…….. ।हर प्राणी जीव इन बयारों का आनंद लेने के लिए मदमस्त हो जाता है……..। कोई तो अपने घरों में बंद होकर गवाक्षों से झाँक कर इस रंगीन छटा का आनंद लेता है और कोई खुले आम सर्वसम्मुख मदमस्त होकर लेता है……। यहाँ उम्र का कोई तकाज़ा नहीं बालक ,बच्चे बूढ़े वृद्ध हर कोई रंगीनी मस्तियों में छा जाते हैं…….। मेरे मन में भी एक प्रश्न का छोटा सा अंकुर जन्मा कि आखिर इस रंगोत्सव की सुन्दर छटा का आनंद लेने के पीछे इसका इतिहास क्या है जो इसके आनंद लेने का सुख बड़ा ही अद्भुत है।


बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक
शास्त्रों के अनुसार होली उत्सव मनाने से एक दिन पहले आग जलाते हैं और पूजा करते हैं। इस अग्नि को बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है। होलिका दहन का एक और महत्व है, माना जाता है कि भुना हुआ धान्य या अनाज को संस्कृत में होलका कहते हैं,और कहा जाता है कि होली या होलिका शब्द, होलका यानी अनाज से लिया गया है। इन अनाज से हवन किया जाता है, फिर इसी अग्नि की राख को लोग अपने माथे पर लगाते हैं जिससे उन पर कोई बुरा साया ना पड़े। इस राख को भूमि हरि के रूप से भी जाना ता है।


होलिका दहन का महत्व
होलिका दहन की तैयारी त्योहार से 40 दिन पहले शुरू हो जाती हैं। जिसमें लोग सूखी टहनियाँ, सूखे पत्ते इकट्ठा करते हैं। फिर फाल्गुन पूर्णिमा की संध्या को अग्नि जलाई जाती है और रक्षोगण के मंत्रो का उच्चारण किया जाता है। दूसरे दिन सुबह नहाने से पहले इस अग्नि की राख को अपने शरीर लगाते हैं,फिर स्नान करते हैं। होलिका दहन का महत्व है कि आपकी मजबूत इच्छाशक्ति आपको सारी बुराईयों से बचा सकती है, जैसे प्रह्लाद की थी। कहा जाता है कि बुराई कितनी भी ताकतवर क्यों ना हो जीत हमेशा अच्छाई की ही होती है। इसी लिए आज भी होली के त्यौहार पर होलिका दहन एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।


 


संजय कुमार सुमन


 मंजू सदन,चौसा


 मधेपुरा-852213 बिहार


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