लम्बी कहानी .संख्या-1
जाने कितनी बार , कितनी ही बार उन नंबरों पर अंगुलियां थिरकती रहीं ...शायद इन बेजान नंबरों मे किसी खास अपनेपन के एहसास तलाश रहीं थीं...मगर क्या इतने सालों बाद वो एहसास बाकि था भी या...कहते हैं कि बा-बुलंद इमारतों के खंडहर सालों साल सुलगते से दबे पड़े रहते हैं और वक्त की जरा सी हवा मिलते ही लपटों का रुप अख्तियार कर लेते हैं । पुरसुकून वर्तमान के सामने अपनी खलिश समेटे । कोई पुरानी किताब खुल गयी थी जैसे ... जिसे ओढ़ी हुई समाजिकता के दीमक चाट चुके थें ...जरा सी बेध्यानी से छुआ भर कि सारे पन्ने बिखरने लगें ..पोर्च की दिवार से लगे झूले पर बैठी मैं उन पन्नों को समेटने की कोशिश मे लगी थी ...तभी हवा के हल्के झोंके के साथ कचनार की खुशबू महक उठी । मैंने सर उठा कर देखा सामने सड़क पर लगा कचनार अपने पूरे शबाब पर झूम रहा था । सफेद और हल्के जामुनी रंग के साथ मदमाती गंध का एक अजब सा तिलस्म फिर मुझे उन गलियों मे ले चलने की ज़िद लिए शरारती बच्चों सा आ खड़ा था सर पर ।
कब का भूल चुकी थी इस गंध को ...हां इन फूलों के गंध का बड़ा पुराना नाता था मुझसे , जिसे समय की गर्द ने बिसरा दिया था लेकिन आज वही महक मुझे अपने गिरफ्त मे ले रही थी ... ये वही फूल थे जिन्होंने मेरे अल्हड़पने को मुहब्बत के संजिदा फलसफों मे यूं उलझा दिया कि मैं ...आह्ह्...
इन कचनार के पेड़ों पर साल भर मे मात्र एक ही महीने की बहार आती है...शायद मेरी ही तरह , जिसकी जिंदगी मे भी कुछ पल बहारां बने थें ...और जिसकी खुशबू के फैलते ही पतझड़ आ खड़ा हुआ था ..फिर कोई नयी कोपल न आई मगर ओढ़ी हुई हरियाली ने पेड़ को ठूंठ की संज्ञा से भरसक बचाए रखा ।
बीते बिसराए कल को आज सामने खड़ा देखकर एक बारगी बेतहाशा धड़क उठा दिल । शब्द दर शब्द मुझे अतीत की गलियों मे खींचे लिये जा रहा था लेकिन जिम्मेदारियों से लदी फदी आज की हकीकत बार-बार जंजीर सी लिपट उठती पैरों से ।
दिलो दिमाग की जद्दोजहद बहुत बुरी होती है तोड़ जाती है अंदर तक...बेआवाज । बिखरे हुए किरचों से खुद को ही लहुलुहान होते देखना भी एक सज़ा से कम नही तब जबकि खता जर्रा भर न हो और एक आह् एक हूक तमाम उम्र ...
" संध्या जल्दी चल वरना तेरी वजह से आज मुझे मार जरूर पड़ेगी ।"
" चल रही हूं न , बस थोड़े से और फूल ले लूं ..पता है शहरों मे ये इत्ता बड़ा पेड़ होता ही नही और इसे गमले मे लगा भी तो नही सकते । देख तो कित्ता सुंदर रंग और खुशबू भी गज्जब की । कान्हा ने फुर्सत मे बैठकर बनाया होगा इसे , है न ? "
" ओय भाषण , जब देखो कचड़- बचड़ । तेरा मुँह नही दुखता । मेरी अम्माँ बोल रही थीं कि तेरे साथ न रहूं वरना मैं भी तेरी तरह ही कचड़ बचड़ .."
और शाम की सुरमई फिजां मे दो अल्हर खनकदार हँसी घुलने लगी ।
संध्या यानि मैं , जो तब सत्रह साल की शहरी चुलबुली बातूनी और परले दरजे की शरारती लड़की हुआ करती थी । घर भर की लाडली और खानदान मे तीन पीढ़ियों बाद पैदा हुई इकलौती लड़की ..जिसकी परवरिश लड़को से कम न थी । मगर इंग्लिश स्कूल के बाअदब कठोर नियमो से त्रस्त , दमघोंटू शहरी परिवेश से बिदकी हुई जब भी मैं दादी के गांव जाती तो पूरी तरह हर पल जी लेना चाहती थी । बंदरों की तरह पेड़ो पर झूलना , फल तोड़ना , फूल चुनना और हर शाम गांव के तालाब के पास वाले मंदिर मे कान्हा को उन फूलों से बना हार समर्पित करना ...ये लगभग पंद्रह दिन चलता और आखिरी मे रोते बिसूरते शहर वापस आती तो हफ्तों बस उन पेड़ पौधों और फूलों के साथ मंदिर वाले कान्हा की याद मे ही गुम रहती ।
उस बार ठंढ़ मे लंबी छुट्टियां लगीं थीं और साथ ही बड़े ताऊ जी के घर शादी भी निकल आई थी । मै खुशी से बौराई थी क्योंकि गाँव की शादी मे पहली बार शरीक होने का मौका मिला था । खूब जांच परख के लहंगे और मम्मी की बनारसी साड़ियां छांट ली थी । मेरे उत्साह का उफान अपने चरम पर था और मम्मी थीं कि मेरे उत्साह पर पानी फेरने मे लगी थीं
" हे भगवान ! ये साड़ी ? इसका वजन तुम्हारे वजन से जरा सा ही कम होगा । ये संभाल पाओगी भला...क्यों नाश करने पर तुली हो महंगी साड़ियों को ।"
" अरे जाने दो , शौक है तो पहना देना । पहली बार साड़ी पहनने के लिए खुद ही तैयार है तो मत डराओ ..फिर वहाँ बहुत सारे रिश्तेदार भी होंगें ...किसी को पसंद आ गयी तो अच्छी ही बात है न ..दो तीन साल बाद हमे भी दौड़भाग करनी ही है इसकी शादी के लिए ।" पापाजी ने मम्मी को टोकते हुए समझाया था ।
मात्र सत्रह की उम्र मे ही लड़की को पसंद कर लिये जाने की जो अजीब मानसिकता तब हुआ करती थी या जल्दी ब्याह देने कि उस पर आज हँसी आ रही है ।
खैर ! सारी तैयारी के साथ हमारी सवारी निकल पड़ी थी गांव । लगभग एक हफ्ते भर न जाने कितनी सहेलियों और उनकी चचाजात बहनों , फूफियों के घर जा-जाकर और मिन्नतें कर-कर के ढ़ेरों हेयर स्टाइल , मेहंदी के डिजाइन सीखें थें वो मशक्कत अलग । मुकम्मल तैयारी के बाद मन मे लड्डू फूट रहे थें कि अबकि इस शादी मे तो बस मै ही दिखूंगी और कोई न होगा टक्कर देने वाला ।
काश... किसी से टकराए न होते ...
आठ दिन पहले ही हम गांव पहुंच गये थे । शादी कि तैयारियों मे हमारा योगदान बस बिछी हुई पुआल की चटाई पर बैठ कर पंगत मे खाने और शोर मचाने तक था । खाना परोसने वालों को परेशान करना भी क्या गजब का शगल हुआ करता था तब ...कभी दाल गरम नहीं तो , कभी घी ज्यादा चाहिए ,तो कभी पापड़ के लिए हंगामे और सबसे अधिक मजा आखिरी मे दही के वक्त आती । दही परोसने वाले की शामत हो आती जब सभी इकट्ठे उसे इधर आओ इधर आओ कह कर आवाज देते । किसी को दही के साथ शक्कर तो किसी को बूंदी तो कोई रसगुल्ले के लिए चिल्लपों मचाता । इन सभी चुहलबाजियों मे मैं सबसे आगे रहती क्योंकि सभी की लाडो थी और कोई कभी डांटता नही था मुझे । मेरी शह पर मेरे पीछे सभी हम उम्र वही शैतानियां करतें थें । बस एक बड़े ताऊजी का डर मुझे भी लगता था । अच्छे खासे छह फुट के ताऊजी की रोबीली मूंछें भी एकाध फिट लंबी जरूर रही होगी ..हां और नही तो क्या , तभी तो वो दाढ़ी मे घुसपैठ करती सीने तक लहराती रहती जो एक रौबदार व्यक्तित्व के साथ ताऊजी को भीड़ मे भी अलग ही पहचान देती थी ।
हाँ तो रोज की तरह हमदोनों चली आ रहीं थीं फूल चुनकर । हम दोनों मतलब मैं और मेरी दूर दराज की चचेरी बहन आशू । मैंने आज पहली बार कचनार के फूल देखें थें । झक्क सफेद और हल्के जामुनी रंग के, मदमस्त खुशबू से सराबोर बड़े बड़े फूल ...जो अब तक मैंने कभी नही देखे थें । कान्हा को पीले नारंगी गेंदे के फूलों की माला पहना कर खुशी से मटकती चली आ रही थी घर की तरफ । बड़ी घेरदार फ्रॉक मे कचनार के फूल भर रखे थें जिसको टांगो तक उठाए एक थैले जैसी शक्ल मे समेट रखा था । देर हो जाने के कारण सामने के दरवाजे से न आकर हमने पिछले दरवाजे से घुसने की जुगत सोची ताकि आशू को डांट खाने से बचाया जा सके । पिछले दरवाजे तक जाने के लिए सकरी सी गली पड़ती थी जहां शादी का मंडप बांधने के लिए हरे कच्चे बांस रखें थें रास्ते मे । झुरपुट अंधेरे की वजह से मुझे दिखे नहीं या यूं कहा जाए कि किस्मत का अडंगा था जिसने अक्ल पर पट्टी बांध दी थी और मै जा टकराई उन बाँसों से ...इस से पहले की गिरती किसी की बाँहों ने थाम लिया था मुझे लेकिन हमेशा की तरह किसी भी परेशानी मे आँखे बंद कर के चीखने की मेरी आदत बिला नागा उस वक्त भी अपना पूरा परफोरमेंस देने लग गयी । आशू ने डपटते हुए मुझे झकझोरा
" ओय , गिरे बगैर इतना चिल्ला रही है । चुप रह , अभी तमाशा खड़ा हो जाएगा मेरी दुश्मन ।"
मेरी आँखें झट से खुल गयीं । आँखें खुलते ही जो पहली रसायनिक प्रतिक्रिया हुई थी मेरे अंदर ...वो आज भी सिहरा जाती है । दो मजबूत बाँहें मुझे सँभाले खड़ी थीं । गौर वर्ण का वो शख्स जिसके घुंघराले बालों की लट आधे माथे पर यूं छितराई थीं जैसे बदली से झांकता चांद ...बड़ी बड़ी आँखे जिसमे कुछ ऐसा था जिसने मेरी नजरों को बांध लिया था । ऐसा न था कि अब तक लड़के मुझे दिखे न थें ..खासकर को-एजूकेशन मे तो सामान्य था लड़कों के साथ रहना मगर यहां तो कुछ बात ही अलग लगी ...ऐसा लगा मानो कान्हा ही तो न आ खड़े हुए हों ...अजीब सी मनोदशा थी ...एक खुमारी सी ...शायद यही स्थिति सामने वाले शख्स की भी थी । कुछ पल बीता होगा ऐसे कि तभी बड़े ताऊजी कि आवाज गूंजी
" क्या हुआ लाडो ? क्यों चीखी ? " लालटेन हाथ मे लिए आते दिखें ताऊजी । एक ही पल मे सारा नशा काफूर हो गया और मैं सीधी खड़ी थी अपने पैरों पर बिना किसी सहारे के ।
" बाऊजी , बांस से टकरा गयी थी संध्या । अंधेरे के कारण दिखा नही ।" आशू ने धीमी आवाज मे जबाब दिया ।
" हाँ भईया , वो तो मैं इधर ही आ रहा था तो झट से पकड़ लिया वरना बेतहाशा गिरती और सर वर फूटता ही था ।" उस शख्स की आवाज थी ये ।
" ओह्ह् , अंधेरे के कारण नही दिखा होगा । यहां पर ये लालटेन टिका दे शेखर , कहीं किसी और को चोट न लगे । अब ब्याह के घर मे तो ऐसे सामान पड़े ही रहेंगे । और लाडो ये क्या बटोर लाई है फ्रॉक मे । ये गांव है बिटिया , ऐसे पैरों तक फ्रॉक उठा कर नही घूमते । "
और मुझे करंट लगा । मैंने झटके से फ्रॉक छोड़ दिया और सारे फूल उस शख्स के पांवों पर गिर पड़े । वे भी अचकचा सा गये और हड़बड़ा कर दो कदम पीछे हो लिए । ताऊजी लालटेन उन्हें पकड़ा कर खुद आगे आंगन की ओर बढ़ गये थे इसलिए अचानक हुई इन हरकतों को देख नही पाए मगर आशू ने ठुस्स् से हँसते हुए कहा
" शेखर चाचू , लो ये फूल स्वीकारो जान बचाने के बदले । अभी वहां गेंदे का फूल मंदिर मे कान्हा को चढ़ा कर आई थी और ये कचनार के कुछ फूल आपके हिस्से का था । "
मेरी हालत तो सिर्फ़ मै समझ रही थी या शायद मैं बदहवास सी थी कुछ भी समझ नही आ रहा था बस एक अजीब सा एहसास हो रहा था जिसने धड़कनों की रफ्तार तेज कर दी थी । आँखें बार बार जा अटकती थीं उस चेहरे पर जहां अब एक शरारती मुस्कान खेलने लगी थी । क्या था उन नजरों मे कि बस पिघलती सी जा रही थी मैं । एक पल को लगा मानो हमदोनों ही खड़े थें वहां और हमारे बीच कचनार की खुशबू ...तभी आशू ने फिर से टोका
"चल भी अब ...तेरी जान तो बच गयी पर अब मेरी आफत है ।"
" चलो आशू तुम्हारी अम्मां से तुम्हें बचाएं । शेखर चाचू है न ..तुम्हारी अम्मां कुछ न कहेंगीं ।" शेखर नामक उस शख्स ने आशू के सर पर चपत लगाते हुए कहा और आंगन की ओर बढ़ गये दोनों । मैं भी एक अनजानी डोर से खिंची उनदोनों के पीछे उनींदी सी चल पड़ी और साथ मे चल पड़ी थी कचनार की खुशबू ।
पैर हवा मे तैर रहे थे जैसे और मै ख्वाब मे चल रही थी । सामने ही आंगन मे अलाव जलाए सभी बड़े बूढ़े बैठे थें । एक तरफ चुल्हे पर खाना बन रहा था । आशू की अम्मां वहीं घर की अन्य औरतों के साथ बैठी रोटियां बना रही थीं । आशू पर नजर पड़ते हीं उन्होंने गुस्से मे बेलन दिखाया । बेलन देख कर आशू मुझे घूरती हुई कट्टी का इशारा करती अपनी कानी अंगुली दिखाई और पैर पटकती अंदर चली गयी । मैं अभी तय नही कर पाई थी कि आशू को मनाने अंदर जाऊं या यहीं रुकूं ..शायद दिल ने पैरो को रोक दिया था । मैं वहीं रुकना चाहती थी जहां शेखर थें । अलाव के पास बैठी बुआ ने हाथ पकड़ कर वहीं बिठा लिया मुझे । उनके सवालों और सभी के साथ बोलती बतियाती हुई मैं वहां होकर भी वहां नही थी । मेरी आँखें लगातार शेखर पर टिकी थीं । उन्होंने वहीं आशू की अम्मां के पास रखे मोढ़े पर कब्जा कर लिया और सभी से घुलमिल कर खूब बतियाए जा रहे थें।
बातचीत के बीच न जाने कितनी ही बार हमारी नजरें टकराईं । रात के खाने के बाद तफ्सील से पता लगा कि शेखर आशू के चाचा हैं मगर बहुत दूर के रिश्ते मे बुआदादी लगतीं हैं उनकी माँ । मुँहबोली बहन जैसी थी उनकी माँ हमारे घर के सभी चाचा ताऊ के लिए । एक गाज़ और गिरी तब जब हमारा परिचय करवाने के लिए ताऊजी ने हमें बुलवाया । शेखर जब चाचू घोषित किया जा रहे थें तो हमदोनों के ही चेहरे का रंग उड़ा सा था ।
जिस शख्स को देखकर ही मन मे प्रेमभावों का आवेग उठा हो उसे इस सम्मानित रिश्ते मे तब्दील करना बहुत मुश्किल था हमारे लिए । न जाने किस सोच मे डूबी उन आँखों मे जब मैंने झांका तो वहां भी यही उपापोह दिखा । खैर परिचय सम्मेलन खत्म होने के बाद सभी अपने बिस्तर की तरफ चल पड़ें । शेखर भी सुबह आने की बात कहते हुए अपने घर जाने को मुड़ गयें । उनके साथ ही आशू और उसके बहन भाई तथा अम्माँ भी जाने लगीं । मैं उन्हें छोड़ने के बहाने दरवाजे तक आई थी । जाते वक्त दो तीन बार शेखर ने पलट कर मुझे देखा था । एक बेचैनी सी दिखाई दी मुझे उनकी आँखों मे या खुद मै ही बेचैन थी उनकी अनुपस्थिति से जो मात्र रात भर की थी ...
हर सुबह कि तरह ही आम सामान्य ठंडी सी सुबह थी ये , मगर कहीं कुछ विशेष घट चुका था । हमेशा की तरह देर तक रजाई लपेटे पड़ी रहने वाली मैं बहुत जल्दी बिस्तर छोड़ चुकी थी । सलीके से बाल बांधने की गुहार लगाती कभी बुआ तो कभी ताई के पास कंधी रिबन लिए भटक रही थी ...कमर तक खुले लंबे बाल आज कुछ ज्यादा ही उलझे से थे । सुबह के समय सभी को हजार काम ...यहां से वहाँ टरकाई जाती देख मै भुनभुनाती सी जा कर पीछे के आंगन मे पीपल के चबूतरे पर जा बैठी । खुले बाल मानो चबूतरे पर फैले हवा के साथ झूल रहे थें ।
तभी बाल खिंचता सा लगा और मैं गुर्राती सी पलटी । देखा तो शेखर खड़े थें और उनके हाथों मे गन्ने के कुछ गंडेरियां थीं और मेरे बाल उनमे अटके थें । शायद ये हवा से हुआ हो या फिर जानबूझकर ..उनकी आँखों मे अजब सम्मोहन था । मेरी धड़कनों ने बेतहाशा दौड़ लगा दी थी ..कनपट्टियों पर सनसनी सी होने लगी । बिना एक भी शब्द बोले हमारी आँखें खामोनी से एक दूसरे को अपने मनोभाव समझा रही थीं शायद ...एक अजीब बात ये थी कि बात बात पर झपकने वाली मेरी पलकें न जाने क्यों उन्हें देखते ही बिलकुल स्टैचु सी हो जातीं ...लगता जैसे डूबती जा रही हूं , होश बाकी नही रह जाता था फिर ... जाने क्या नशा था ।
" तुम्हारे बाल बहुत सुंदर हैं संध्या । " शेखर की आवाज ने जैसे उबार लिया था ।
" कभी झाड़ू नही मिला तो तुम अपने बालों से लगा देना ।" आशू ने आगे का वाक्य पूरा किया और जोर से ठहाका गूंजा जिसमे शेखर भी शामिल थें ।
सारा नशा काफूर हो गया और मैं तनमना सी गयी । ठहाके मे साथ देना ..हुंह ! मतलब क्या था शेखर का । मै मजाक दिखती हूं जो दोनो मिलकर खिंचाई कर रहें मेरी । मैं अपमानित सा महसूस करती डबडबाई आँखो को बचाती अंदर की तरफ दौड़ गयी । फिर तो दिन भर मैं अपने कोपभवन से बाहर न आई ।
सभी बारबार बुलाने आते रहे मगर मै टेसूए बहाती पड़ी रही । आशू बिचारी कभी बुआ की तो कभी ताई की डांट खाती फिर रही थी कि क्यों शेखर के साथ मिलकर मजाक उड़ाया । और उधर शेखर भी बेचैन से थें । जब मैं शाम तक बाहर न आई तो चाय लिए अंदर आए । मैं आहट सुनकर रजाई मे मुँह ढ़के पड़ी रही । मुझे लगा शायद आशू हो इसलिए नाटक और गंभीरता से कर रही थी ।
तभी माथे पर एक कोमल सी छुअन ने शरीर मे झुरझुरी जगा दी । मेरी आँखें खुलीं और खुद पर जरा सा झुके शेखर और उनकी हथेली को माथे पर देख एक बारगी सिटपिटा सी गई । पसीने से भींगने लगी अंदर ही अंदर ...आँखे फिर खो सी रही थी उन आँखों मे ...तभी शेखर बोल उठें
" सर तो ठंढ़ा है । बुखार नही है फिर क्यों नही निकलीं बाहर ? " आवाज मे खीज के साथ एक बेचैनी सी थी ।
मैंने कुछ नही कहा और चुपचाप उठ कर बैठ गयी । वे वहीं पास मे रखे स्टूल पर बैठ गये थें । चाय मेरी ओर बढ़ाते हुए उनकी नजरें लगातार मुझे भेदती सी जा रही थी ।
" अदरक वाली चाय है पी लो और झट से तैयार हो कर बाहर आ जाओ । हम सभी तालाब वाले मंदिर पर जा रहें । तुम आशू के साथ आ जाना । मैंने उसे बोल दिया है । और सुनो , आ ही जाना ।" आखिरी शब्द पर जोर देते हुए उन्होंने आँखों मे झांका । मैं अपलक सी निहारती रह गयी और वे कमरे से बाहर जा चुके थें । उनके निकलते ही तीर की तरह आशू आ टपकी ।
" सुन लिया न ! अब झट से थोबरा चमका ले और चल । "
" लेकिन अब्भी ? सभी डांटेंगे , और आज तुझे अम्मां का डर नहीं? "
" अम्मां का ही काम है मेरी दुश्मन । आज उनकी तरफ से कान्हा को भेंट देनी है । अम्मां भी जातीं मगर वो अशुद्ध हो गयी इसलिए हमें भिजवा रहीं । शेखर चाचू के सुपुर्द इसलिए किया ताकि अंधेरे मे हम अकेले न आएं । " मटक्को बिल्ली सी आँख नचाती आशू पर बड़ा प्यार आया मुझे , मै मारे खुशी की उससे लिपट गयी ।
"अरे अब छोड़ ये नौटंकी और जल्दी तैयार हो जा । मैं भेंट की चीजे इकठ्ठी कर झोले मे रख लेती
हूं । "
आशू बाहर निकल गयी और मैं एक बार फिर हवा के हिंडोले मे थी । संतरी पीले रंग के सूट मे शिफॉन की चुन्नी ओढ़े तैयार होकर जब आइने मे देखा तो खुद पर ही फिदा हो गयी । काजल की सुरमई कोर से आँखें और भी खूबसूरत दिख रहीं थीं । कानो मे बड़ी बड़ी बालियां झुलाती आंगन मे आई और बुआजी को जता कर आशू के साथ निकल पड़ी । आज एक अलग सा ही एहसास हो रहा था । गाल गुलबी हो रहे थें । खुद मे ही खोई सी देख आशू ने छेड़ा
" आज तो बहुते खबसूरत लग रही । कवनो खास बात है का ? "
"अरी कुछ नही , बस आज तुझे दिनभर सब की डांट पड़ी न इसी बात से खुश हूं । और तू ये गंवई भाषा मे क्यों बोल रही ? जरूर कुछ शैतानी होगी मन मे तेरे ।"
"और तेरे मन मे क्या है ? " आशू कि नजरें मानो सोनोग्राफी कर रही हों मेरी ।
" कुछ भी तो नही और तू ऐसे क्यों घूर रही मुझे ..." मेरी जबान अटक सी गयी और मै नजरे चुराने लगी उससे कि कहीं मेरी चोरी पकड़ न ले वो ।
" वैसे सच कहूं तो शेखर चाचू के साथ तेरी जोड़ी खूब जमेगी ...मुझे तो लगता है कि बड़े ताऊजी को ये खबर दे देनी चाहिए ताकि छोटे ताऊजी (मेरे पापा ) की चिंता खत्म हो तेरे ब्याह को लेकर । " आशू गंभीरता से बोल रही थी ।
" पागल ! बकबकाए जा रही कुछ भी ..ऐसा कुछ नही और सबसे बड़ी बात तेरे चाचू कुछ करते भी हैं या बस ..." मैंने उसे टटोला था या शायद खुद को आश्वस्त करना चाह रही थी ।
" लो कर लो बात ! चाचू मैनेजर हैं इमारती लकड़ियों के फार्म हाउस मे । अच्छा कमाते हैं और इस साल उनकी शादी के लिए लड़की ढ़ूंढ़ रहीं बुआदादी ...वैसे कह तो तेरी बात चलाऊं ।" उसकी बत्तीसी चमकी ।
" ज्यादा ठीठी ठीठी मत कर बिल्लो और मै तेरे लकड़ी बेचने वाले चाचू के पल्ले न बंधूंगीं हाँ ..मुझे तो बैंकवाले से शादी करनी है । " मैं उसे चिढ़ाते हुए ये बोल रही थी मगर कहीं न कहीं दिल हुलस सा रहा था शेखर के साथ अपना नाम जुड़ता देख कर । आशू ने आँख तड़ेरी और कुछ कहतीं तभी मनुआ दादा ( पुराने नौकर ) ने हमे आवाज दी । हम जल्दी से मंदिर की तरफ लपके ।
आज पहली बार मैं खाली हाथ आई थी कान्हा के द्वार पर ...मन बेचैन सा हुआ कि कोई फूल लाई न माला ...आज क्या अर्पित करुंगी कान्हा को । शाम और रात की संधिबेला के बीच डूबते सूरज की रश्मि किरणों की लालिमा फैली हुई थी ..मानो सूरज डूबने के बाद भी कुछ और देर रौशन रखना चाहता हो खुद का अस्तित्व ...अभी धुंधलका छाया नही था इसलिए मैं जल्दी से पोखर के दूसरी तरफ लगे फूल के पौधों की तरफ दौड़ लगा दी । वहां ढ़ेर सारे लाल नारंगी पीले गेंदे लगे थें जिन्हें जल्दी जल्दी तोड़ कर अपने दुपट्टे मे भरती जा रही थी ।
तभी माली के चिल्लाने की आवाज आई और मैं बदहवास वापस भागने के लिए पलट ही रही थी कि पांव फिसल गया । गिरते ही मेरी चीख निकल गयी । वो तो गनीमत था कि पोखर मे नही गिरी । आवाज सुनकर सबसे पहले शेखर पहुंचे । वे कहीं आसपास ही रहे होंगे । आशू तथा और सभी के आने तक माली भी भन्नाता सा आ डटा हमारे ऊपर । इस से पहले की वो कुछ कहता आशू ने बड़े ताऊजी का नाम लेकर उसे चुप करा दिया । मुझे जस की तस बैठी देखकर उसने उठने का इशारा किया मगर मैं चाह कर भी उठ नही पा रही थी । पांव मुड़ गया था और हथेलियों के बल गिरने से कंधो मे झटका सा लगा था । मै असहाय सी उसे देखती हुई उठने मे असमर्थता जताई ।आशू ने शेखर की ओर देखा और मुझे उठाने को कहा । उसके हाथ मे पूजा की थाल थी जो वो किसी और को दे नही सकती थी ।
शेखर ने धीरे से सहारा देकर पहले मुझे खड़ा किया फिर अपनी बाँहो के सहारे मेरा कंधा पकड़ कर संभलते हुए चलने को कहा । एक तो गिरने से बदहवास थी मैं और कुछ कुछ शर्म भी आ रही थी कि इत्ती बड़ी घोड़ी जैसी लड़की यूं गिरी , फूलचोरी का इल्जाम भी सबके सामने कम बड़ु बात न थी ...फिर यूं शेखर का इतने करीब आ कर मुझे बाँहों के सहारे लिए चलना ...उफ्फ जाने कितनी रसायनिक प्रतिक्रियाएं एक साथ होने लगी मेरे अंदर और पत्ते की तरह कांपने लगा शरीर ..
" अरे ऐसे कांप क्यों रही ? ठंढ़ लग रही है ? स्वेटर तक नही पहना है तुमने ...पूरी बौड़म हो । " कहते हुए शेखर ने अपनी जैकेट उतार कर मुझे पहना दिया ।
" स्वेटर तो क्या आज ये अपना टोपा भी नही लगाई है चाचू ...पता नही काहे की जल्दी मची थी इसे ।" आशू की बत्तीसी से अधिक उसकी आँखे चमक रही थी । मैंने गुस्से मे घूरा तो वो तेज कदमों से आगे बढ़ गयी ।
..आशू का आगे बढ़ जाना उस वक्त समझ नही आया था मगर अब समझती हूं कि उसने तब हमें जानबूझकर अकेला छोड़ा था । मात्र सौ कदम के फासले हमने एक साथ तय किये थे और शायद मेरी ही तरह शेखर ने भी तब यही दुआ की होगी कि आजीवन हम यूं ही साथ चलते ...शेखर के सनिध्य मे उसकी खुशबु और छुअन मुझे सिहरा रहे थें । पांव की मोच और कंधों की तकलीफ़ भूल गयी कुछ देर के लिए... बस उस स्पर्श की खुशबु मे महक रहा था मेरा अंतर्मन ...
मंदिर पहुंच कर मुझे दीवार के सहारे खड़ी कर गये थें शेखर । पंडित जी को भेंट का सामान दे कर आशू हमारी ही राह देख रही थी । कान्हा के सामने खड़ी मैं आँखें बंद किये अपने साथ खड़े शख्स को अपनी जिंदगी का सहारा बनाने कि विनती कर रही थी । आज गेंदे का फूल माले की शक्ल मे नही था जिसे कान्हा को चढ़ाते हुए कुछ अपूर्णता सा महसूस हो रहा था मुझे । एक एक फूल अलग अलग ..बिखरा सा ...बगैर धागे के कैसे बांधा जा सकता है कुछ भी , भले धागा कच्ची सूत का ही हो ...आज का अधूरा श्रृंगार जाने क्यों आशंकित कर रहा था मन को ।
खैर अंधेरा घिर आया था और अब हम लौट रहे थें घर की तरफ । आशू का हाथ पकड़े हुए शेखर के पीछे चल रही थी मगर उनकी खुशबू जैकेट के साथ ही मुझसे लिपटी चल रही थी । घर आकर आशू ने मेरे लंगड़ा के चलने के पीछे की वीरगाथा सभी को सुना दी । फिर तो रिश्ते की चाचियों और बुआओं ने मुझे फिरंगन की उपाधी दे कर खूब हँसी उड़ाई । मैं वहीं अलाव के पास बैठी सबको खुद पर हँसता देख मुस्कुरा रही थी । आज मेरे चेहरे पर जरा सी भी मलीनता नही थी वरना अब तक तो कब की भुनभुनाती हुई जा बैठती कोपभवन मे ।
शायद ये असर था उस खुमारी का , उस छुअन का जिसे प्यार कहते हैं जिसने रोम रोम को झंकृत कर दिया था । शेखर की जैकेट अब भी मुझसे लिपटी थी और मैं उसमे उनकी बाँहों को महसूस कर रही थी । बुआजी गर्म तेल से मेरे पैर की मालिश कर रहीं थीं और सामने ही शेखर बैठे शरारती नजरों से जब तब मुझे देख रहे थें सभी की नजर बचा कर । मगर हम पर किसी की नजर पर चुकी थी ।
शादी वाले दिन पीछे के आंगन मे एक कोने मे पड़े स्टोर रुम मे मेरा टैम्परेरी ब्यूटीपार्लर बन गया था । शाम तक ब्यूटीपार्लर मे लंबघ लाईन लगी रही ।
लगभग सभी का हेयर स्टाइल और मेकअप ...थक गयी थी पूरी तरह । कारण ...ये गांव की चाचियां और बुआएं कम न थीं । किसी को शकरपाले सी बुनी हुई चोटी जम नही रही थी तो कोई जूड़े मे कम्फर्ट नही थीं ...किसी को पाउडर अधिक पोतना था तो कोई लिपस्टिक लगाए जाने पर ही शर्म से लाल हो रहीं थी । साड़ी बांधने मे सौ बार उठ्ठक बैठक हो गयी होगी सो अलग । सभी का मेकअप हो गया था मगर अब तक थकान से मेरी रंगत उड़ गयी थी । मैं वहीं कमरे मे सभी सामानो के ढ़ेर के बीच औंधी लेट गयी । जाने कब आँख लग गयी । ये स्टोर रुम था जहां मैंने अपना पार्लर जमाया था और इधर कम ही आवाजाही थी । अंधेरा हो गया था मगर किसी ने लाइट भी नही जलाई थी इधर की । मैं बेसुध सोई पड़ी थी । तभी शेखर की आवाज से हड़बड़ा कर उठ गयी ।
" यहां क्या कर रही हो तुम ? और अब तक तैयार भी नही हुईं ? " वे मेरी कलाई पकड़े हिला रहे थें मुझे ।
" वो सभी को तैयार करती हुई थक गयी थी । जरा सा लेटी तो नींद आ गई । " मैं झेंपती सी बोली ।
" मैं चाय लाकर देता हूं । पी लो और तैयार हो जाओ । नौ बजे तक बारात आ जाएगी । "
वे जा चुके थें । आशू भी मुझे ढ़ूंढ़ती वहां आ गयी थी । उसने बढ़िया सा लहंगा सिलाया था ।
" सबकी कंघी चोटी हो गयी न ? अब मुझे भी तैयार कर दे । और तू ऐसी ही बनी रह भूतनी जैसी । " कहती हुई उसने आइना सामने रखा तो हम दोनों ही खिलखिला दिये । क्योंकि काजल बह कर आँखों के बाहर तक आ रहा था वहीं सभी को लगाई लाली पाउडर चेहरे पर फैला था मेरे । मैंने उसके दुपट्टे मे मुँह पोछना चाहा तो वो छिटक कर भाग गयी । मैं वहीं बैठी रही तभी शेखर चाय लेकर आ गयें । चाय सामने टेबल पर रखा और जाने को मुड़े ही थें कि लाइट कट गयी । मैं वहीं बिलकुल पास ही खड़ी थी । अंधेरा ऐसा कि कुछ सूझ नही रहा था । अभी कुछ समझती कि उसके पहले कुछ पांवों के उपर से निकला ..शायद चूहा ...मैं घबरा कर चीखी और लिपट गयी शेखर से । शेखर ने सबसे पहले मेरे मुँह पर हाथ रखा और फुसफुसाए
" पिटवाओगी क्या ? एक तो लाइट नहीं है दूसरे मुझसे चिपकी हुई हो खुद और चीख भी रही हो ।"
ये सुनकर मै हड़बड़ा कर उनसे अलग होने को हुई मगर उन्होंने मुझे बांहो की कैद से मुक्त न होने दिया । कानों के पास हल्कि सी सरगोशी हुई
" संध्या , तुम मुझे बहुत पसंद हो । शायद यही पहली नजर का प्यार होता है । यदि तुम हाँ कहो तो मैं माँ से बात करुं । यदि ना हो तो फिर कोई बात नही ...मगर मेरा दिल कहता है तुम हाँ कहोगी ।"
मैं कुछ भी कहने की स्थिति मे न थी । बेकाबू धड़कनों के शोर ने पूरे शरीर को कंपकंपा सा दिया था । मैं बगैर कुछ कहे बस उन पलों को खुद मे जज्ब कर लेना चाहती थी । एक ऐसा पाक एहसास जो रुह की गहराइयों मे उतरता जा रहा था । इस छुअन मे कहीं कोई ऐसा एहसास न था जो शरीर को परिभाषित करता लगा हो ..ये तो दो रुहानी और मुकद्दस प्रेम का प्रवाह था जो निर्बाध बहा जा रहा था । मैं जाने कैसे वशिभूत सी और सिमट गयी उनकी बाँहों मे ...सीने पर सर रख कर उनकी धड़कनो को सुन रही थी । बमुश्किल दस मिनट गुजरे होंगे । शेखर ने समझ लिया था मेरे दिल कि बात को ...बगैर एक भी शब्द बोले । धीरे से मुझे अपनी बाँहो से अलग कर मेरा सर सहला कर आगे बढ़ गये अंधेरे मे ही ...उनके जाते ही लाइट आ गयी थी । मेरा पूरा शरीर जैसे लरज रहा था । बुत की तरह वहीं बैठी मै बिलकुल ही शिथिल सी हो गयी थी । सुन्न पड़ गया था शरीर और दिमाग । कुछ पल के बाद आशू चाय लिए आती दिखी ।
" ले चाय पी ले । चाचू ने भिजवाया है , और फट से तैयार हो जा । सब तुझे ही ढ़ूंढ़ रहे हैं । और सुन आज वो बुआदादी भी आईं हैं । बैठी हैं आंगन मे ..सभी से मिल रहीं । अभी छोटे ताऊजी से तेरे लिए पूछ रहीं थीं । जरा अच्छे से तैयार होना । " आशू की पटड़ पटड़ कानों मे पड़ रहे थें मगर समझ नही आ रहा था कुछ भी क्योंकि दिलोदिमाग दोनो ही अपनी जगह पर नही थें ।
कुछ देर तक खुद को संभालती हुई चाय पीती रही फिर तैयार होने लग गयी । आशू को पहले तैयार कर के बाहर भेज दिया था । छोटी चाची ने साड़ी पहना दी थी मुझे । हरे रंग की सिल्क बनारसी साड़ी मे मैं बहुत सुंदर लग रही थी । तभी तो चाची ने जाते हुई ढ़ीट का टिका लगा दिया था कानों के पीछे ।
बालों को क्लिप के सहारे खुला छोड़ दिया क्योंकि सभी की चोटी बाँध बाँध कर पखुड़े दुखने लगे थें ।
नब्बे के दशक मे तब आधुनिकता की महामारी अधिक नही फैली थी इसलिए बारात मे महिलाएं नही आया करतीं थीं । तब बालों मे वेणी या फूल लगाना भी बहुत बुरा माना जाता था । घर की महिलाओं और कुंवारी लड़कियों को भी बहुत अलग रखा जाता था बारातियों से ।
मैं हल्की लाली और काजल की लकीरों मे खुद को समेटती , साड़ी संभालती हुई जब आंगन मे आई तो एकबारगी सभी मुझे ही देखने लग गयें । कुर्सी पर बैठी उम्रदराज़ महिला जिनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था, ये तो नही कह सकते मगर ठसका जरूर अलग ही दिख रहा था । पापाजी ने आवाज देकर बुलाया और पांव छूने को कहा । पांव छूते ही ढ़ेरों आशीष के साथ उन्होंने अपने पास ही बिठा लिया । मेरा हाथ पकड़े बहुत देर तक बात करती रहीं । घर परिवार पढ़ाई आदि...सामान्य सी बातचीत ..मगर मै सहज महसूस नही कर पा रही थी क्योंकि उनके सवालों से अधिक उनकी मुआयना करती नजरें मुझे परेशान कर रहीं थीं । तभी बारात के आने की खबर से हलचल हुई और आशू का हाथ पकड़ मैं वहां से खिसक ली ।
" कौन हैं ये ? तेरी वही दादीबुआ तो नही ? बाप रे कित्ते सवाल करतीं हैं और उस पर घूरतीं भी कितना हैं । मेरी तो सांस ही अटकी हुई थी। " मैंने नाकभौं सिकोड़ते हुए आशू से कहा तो वो गंभीरता से बोली
"अच्छा है न ! एक का मुँह बंद नही रहता दूसरी की आँखें । तुम कचड़पचड़ बोलना वो तुम्हें घूरती रहेंगी ...अच्छी जोड़ी रहेगी सास बहु की , दोनों एक पर एक इक्कीस ।" इस अजीब सी तुलना पर हमदोनों ही हँस पड़े ।
शेखर बारात की खातिरदारी के लिए सभी के साथ शामियाना मे व्यस्त थें । मैं बार बार बेचैन नजरों से उन्हें ही ढ़ूंढ़ रही थी । आशू समझ चुकी थी कि आग दोनो तरफ बराबर लगी है । उसने किसी के हाथों खबर भिजवाई थी शेखर के पास । कुछ ही देर मे शेखर सामने खड़े थें । बाराती के कुछ लोगों को यहां मंडप तक लाने के बहाने वे आए थें । सभी के बैठने की व्यवस्था करते हुए उनकी नजरें मुझ पर ही टिकी थीं जिसमे तारीफ और दिवानगी के मिलेजुले भाव स्पष्ट दिख रहे थें । मैं आशू के साथ वहीं मंडप के एक सिरे पर घरातियों के साथ बैठी थी । बार बार चेहरा गुलनार हुआ जा रहा था । आँखें शरम से झुकी जाती और गालों पर अनार दहक उठे । तभी बड़ी ताई ने आशू को स्टोर से कुछ लाने को कहा । उसने मुझे भी साथ मे खींच लिया । स्टोर मे हम सामान निकाल रहे थें तभी शेखर की आवाज आई
" थैंक्यू आशू ।"
मैं जम सी गयी थी । सामने शेखर अपनी शरारती मुस्कान के साथ हाथों मे एक गुलाब लिए खड़े थें ।
"चाचू जल्दी अपनी कथा निपटा लेना । मैं अभी आ रही ।" आशू मुस्कुराती हुई बगल से निकल गयी और मैं जड़वत खड़ी थी ।
" बहुत खूबसूरत लग रही हो संध्या । आज सोचा था कि माँ से कह दूंगा कि तुम से मिल कर तय कर लें कि बहु पसंद है या नही । मगर आपाधापी मे समय ही नही मिला । "
शेखर बहुत करीब थें मेरे ..शायद बालों मे गुलाब लगा रहे थें । उनकी सांसे मुझ से टकरा रहीं थीं और मैं एक अजीब से नशे की गिरफ्त मे थी । होशो हवास ने साथ छोड़ दिया और जब शेखर ने मेरी ठुड्डी पकड़ कर चेहरा उठाया तो काजल की कोर मे बंधी आँखें अपनी हदों को तोड़ कर उन गहरी झील सी आँखों मे डूबने सी लगीं...जाने कैसा रुमानी एहसास था कि शरीर मे मानो जलतरंग सी बजने लगी ...लगता था समय रुक जाए बस यहीं ..जिंदगी मे और क्या चाहिए इसके अलावे.. इस से इतर और भी कोई जिंदगी हुआ करती है भला ...
आह्ह्...मगर जिंदगी तो जिंदगी होती है । ये छोटे पल छिन महज भुलावे की तरह आते हैं और बहलाते बरगलाते चल देते हैं रुह पर तमाम खराशों को छोड़ कर ...
बुआदादी की पारखी आँखों ने अपने बेटे की बहकती नजरों को भांप लिया था । शादी की रात तमाम समय हम एक दूसरे की आँखों मे झांकते हुए गुजार रहे थें तभी एक हंगामे ने सारा बना बनाया बिगाड़ दिया ...शायद किस्मत यही थी जिसे लिखने वाले ने लिख तो दिया बगैर उस दर्द की कल्पना किये जिसने दिल के जख्मों के साथ ताउम्र जिये जाने की सज़ा को सांसों के साथ मुकर्रर कर दिया था...
बारात मे बड़े ताऊजी के परम मित्र भी आए थें । उनकी नजर बहुत देर से मुझ पर टिकी थी । न जाने कब उन्होंने पापाजी और ताऊजी से बात की और मेरा रोका तय कर लिया । जब उन्होंने जाते वक्त मुझे रुपये पकड़ाए तब भी मैं बेवकूफ कुछ समझी नही बल्कि उन पैसों से क्या क्या खरीदूंगी यही बजट बनाती रही और नसीब का गणित जाने किस ज्यामिती मे उलझने को बेखबर बढ़ रहा था...
शेखर ने वादा लिया था मुझसे कि चिट्ठी लिखूंगी । लैंडलाइन का नंबर भी दिया था । एक खूबसूरत भविष्य के ताने बाने बुनते हम जब विदा ले रहें थें तब क्या जानते थें कि आखिरी मुलाकात है ये हमारी । वापस आ कर उन तमाम मीठी यादों मे खोई मैं सीने में तकिये को भींचे हर दिन शेखर के प्यार मे और भी दिवानी हुई जा रही थी । बारहवीं की परिक्षा के अच्छे परिणाम के बाद आगे कॉलेज की पढ़ाई के साथ ही शादी की बात जोर पकड़ने लगी । मैं हर चिट्ठी मे शेखर से कहती कि जल्दी अपने परिवार वालों से बात करे । उनका जबाब भी माकूल ही रहता । अप्रैल का महिना था गर्मियों ने दस्तक दी ही थी । एक रोज कॉलेज से लौटकर आई तो घर मे खुब गहमागहमी थी । बड़े ताऊजी ,आशू के पापा और भी एक दो लोग परिवार के आए थें गांव से । मैंने बहुत खुशी खुशी सभी के पांव छुए सभी के चेहरे तने से थें । पापाजी वहीं चिंतित से बैठे थें । माजरा समझ से परे था । तभी मम्मी ने आवाज दे कर अंदर बुलाया और धीमी आवाज मे डांटना शुरु कर दी । उनका गुस्सा देख कर मै घबरा गयी मगर तब मेरे पांव तले जमीन खिसक गयी जब उन्होंने बताया कि शेखर वाली बात से ये सभी नाराज हैं और इसलिए ही यहां आए हैं ताकि मुझे समझाया जा सके कि ये रिश्ता किसी हाल मे नही हो सकता । बुआदादी ने विशेष तौर पर खूब ताने दिये थें बड़े ताऊजी को और खूब लानतमलानत की थी उनकी । आशू को डांट पीट कर सारी बात निकलवा ली थी उसकी अम्मां ने और उन्होंने ही पहले बुआदादी को फिर परिवार मे सभी को ये सनसनीखेज़ जानकारी बांटने का काम किया था ।
मै बिलकुल चुप खड़ी थी सभी के सामने सर झुकाए । सभी ने बारी बारी से मुझे ये समझा दिया था कि चाहे मुँहबोली ही सही मगर बुआदादी बहन है उनकी । शेखर के साथ रिश्ता किसी हालत मे न उन्हें स्वीकार है न गांव को । इसलिए भविष्य मे फिर कभी शेखर से कोई वास्ता न रखूं । ये परिवार के मान सम्मान की बात है और यदि इसमे कोताही हुई तो वे भूल जाएंगे कि मै तीन पीढ़ियों मे एकलौती लड़की हूं ।
पूरे शरीर मे झुरझुरी उठ गयी थी उनकी समझाइस कम धमकी सुनकर । बस खामोशी से सर हिलाकर रह गयी । उनके जाने के बाद भी हफ्तों मम्मी का भाषण और कोसना चलता रहा । डाकिया को हिदायत थी कि कोई भी चिट्ठी मेरे हाथ मे न दी जाए । बहुत कोशशों के बाद एक दिन शेखर को फोन कर पाई थी । उनकी बेचैन आवाज सुनकर मैं फूट फूट कर रो दी थी । उन्होंने बहुत समझाया और कहा भी कि हम भाग चलते हैं । एक दिन सब स्वीकार कर लेंगे हमें मगर मैं अपनी जान से अधिक उनकी सलामती के लिए चिंतित थी कि कहीं उनको न कुछ करवा दें ये लोग... आखिरी बार बात हुई थी उस रोज हमारी उन्होंने रुंघे गले से कहा था
" संध्या , क्या तुम मुझे भुला दोगी ? क्या मैं जी पाऊंगा तुम्हारे बिना ...तुम पहला प्यार हो मेरा और आखिरी भी ...भले हम एक न हो सकेंगे मगर तुम्हारी जगह मैं किसी को नही दे पाऊंगा ...ये तकलीफ़ तमाम उम्र रिसने वाला नासूर बन जाएगा ...हमदोनों ही जी नही पाएंगे ..."
मेरी हिचकियों के बीच ही फोन कट गया । मैं इस सदमे से टूट गयी थी । बीमार हो कर बिस्तर पकड़ ली । पढ़ाई चौपट हो गयी । नवंबर मे अचानक एक दिन फिर बड़े ताऊजी किसी के साथ पधारें । बहुत देर तक सभी की बातचीत चलती रही फिर मुझे चाय लेकर बुलाया गया । न चाहते हुए भी मुझे उस रोज शगुन के रुपये पकड़ने पड़े । साथ ही निलेश की तस्वीर भी पकड़ा दी गयी । मैंने तस्वीर को नजर उठा कर भी नही देखा । लगभग पंद्रह दिनों मे ही सगाई की तारीख निकाल ली गयी ।
मैं यंत्रवत सभी रस्में अदा करती रही । निलेश ने जब अंगूठी पहनाई और मेरे हाथ खींचने के बावजूद हाथ नही छोड़ा तब मैंने नजर उठा कर देखा था उन्हें । मासूम से चेहरे पर गंभीर आँखें जहां शरारत या प्यार नही बल्कि हक़ के भाव अधिक थें शायद ...धीरे धीरे सिलसिला शुरू हुआ निलेश के फोन का ...मैं खिंची खिंची सी बात करती बस एक औपचारिकता निभाती थी । एक रोज उन्होंने पूछ लिया
"मै पसंद नही तुम्हें शायद ...देखो यदि ऐसा है तो बता दो अभी भी समय है । मैं तुम्हें तुम्हारी समस्त स्वीकृति से पाना चाहूंगा ..दिल और दिमाग के बीच सिर्फ़ शरीर नही चाहिए मुझे ..पत्नी के साथ एक मित्र एक प्रेमिका का भी इंतजार है मुझे ...अब यदि तुम इस सभी रुपों मे खुद की स्वीकृति दो तभी मै फोन करुंगा अन्यथा मुझे पापाजी से बात करनी होगी । दबाव मे रिश्ते निभाऐ नही ढ़ोये जाये हैं संध्या ।"
मैंने उस रोज बहुत सोचा । लगभग सही ही कहा था निलेश ने । जिस राह जाना नही उसकी बाट जोहने का कोई मतलब न था । फिर निलेश की क्या गलती थी जो उन्हें तकलीफ दिया जाए। ये सब तो तकदीर के तमाशे थें ...नियति के आगे सर झुकाना ही था । अगले दो महीने बाद ही मैं निलेश की ब्याहता थी । शादी के हवनकुंड मे अक्षत फेंकती अपनी पुरानी यादों को भी होम कर दी थी ...विदाई के समय अपनी अंजुरी मे भर भर कर चावल फेंकने के साथ ही खुद को भी पूरी तरह उसी देहरी पर उलीच आई थी ताकि आगे के सफर मे सिर्फ़ निलेश के हिस्से की संध्या हो ...
आज लगभग बीस सालों बाद फिर वही आवाज ,वही कसक ..
"कैसी हो संध्या ? "
" कौन ? मैंने पहचाना नही । "
" मैं शेखर ! बहुत सालों बाद गांव आया था ...बहुत मिन्नतों के बाद आशू से तुम्हारा नंबर मिला । तुम खुश तो हो न ? और बच्चे..."
न जाने कितनी बातें कितने सवाल और मैं एक बार फिर चेतनाविहीन महसूस कर रही थी खुद को ...हजारों सवाल थे मेरे पास भी ..मगर अब इन सबका औचित्य ...
" मैं अच्छी हूं और बहुत खुश भी । निलेश अच्छे इंसान हैं । सब कुशल है । एक बात कहूं यदि गलत न समझें तो .." मैं खुद को समेट चुकी थी अब तक ।
" हाँ बोलो न ! पूछने की जरूरत तुम्हें कब थी .."
" यदि हम अजनबी ही बने रहें तो हमारे परिवार ,बच्चों के लिए अच्छा होगा...शायद मैं आपसे पहचान का आधार या रिश्ते का समीकरण निलेश को समझा नही पाऊंगी ...आप समझ रहे हैं न ..."कहती हुई मैं हकला रही थी ।
" हमेशा खुश रहो संध्या । मै समझ सकता हूं । बस एक बार तुम्हारी आवाज सुनने की बेचैनी मे मै भूल गया था कि हलात ने आज हमें जहां ला खड़ा किया है वहां रिश्ते तो क्या पहचान की भी कोई पगडंडी नही हो सकती हमारे बीच... अलविदा ! "
फोन कट चुका था और मैं उन नंबरों पर अंगुलियां फेरती उनके शब्दों मे खुद को तलाशती इस रिश्ते के आग़ाज और अंज़ाम के बिखरे पन्नों को समेट रही थी ...बाहर हवा के तेज झोंके से कचनार के फूल यहां पोर्च तक आ बिखरें थें । वही सफेद जामुनी रंगत मगर खुशबु का तिलिस्म टूट चुका था ...
अपराजिता अनामिका
बैतूल मध्यप्रदेश
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