मन की बात- पूनम

मन की बात-साप्‍ताहिक आयोजन
 एक बरस पहले की  घटना है अस्पताल के आई०सी०यू०में बिछावन पर पड़े तन तो शिथिल हो चुका था किन्तु कई सवाल एक साथ जेहन में कौंध रहा था...क्या अगला पल जी पाऊँगी मैं?कौन हूँ मैं?क्या है मेरा इस संसार में आने का प्रयोजन? बेटी, बहन,पत्नी,माँ,दोस्त,और न जाने कितने रिश्तों को निभाती आई हूँ....किन्तु खुद से खुद का रिश्ता निभा पाई हूँ क्या?जब डाक्टर ने हाथ खड़े कर दिए तब उस क्षण मैं इन्हीं प्रश्नों से जूझ रही थी।
मेरा जन्म पटना शहर में हुआ था।मेरे पापा सज्जन,करुणाशील एवं कर्मठ व्यक्ति थे ।पेशे से अभियंता ।माँ सरल,ममतामयी एवं दृढ़ संकल्पित महिला थीं।मुझसे दो भईया बड़े और दो बहनें एक भाई अनुज  थे।हमारे यहाँ लड़का-लड़की मे भेदभाव नहीं किया जाता था। पापा को किताबें पढ़ने और खरीदने का बहुत शौक था।घर में विभिन्न विषयों पर पुस्तकों से सजी एक छोटी पुस्तकालय सी थी।रंग-बिरंगी पुस्तके बचपन से मुझे आकर्षित करतीं।जिज्ञासा होती कि इनमें क्या लिखा है।कब पन्ना पलटते-पलटते पढ़ने का शौक जाग गया पता ही न चला।बाल-मस्तिष्क में समझ आये न आये पढ़ने से कभी चूकती नहीं थी।शायद भविष्य में क्या बनना है उसके लिए नींव मजबूत हो रही हो। पापा हमें विज्ञान,गणित एवं अंग्रेजी पर विशेष ध्यान देने को कहते।वे मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे ।अतःउनकी इच्छा पूरी हो इसलिए मैं विज्ञान विषय लेकर मेडिकल की तैयारी में जुट गई।सफलता हाथ नहीं लगी।मैं बी०एफए०करना चाहती थी।फार्म भरने की अंतिम तिथि को फार्म जमा करने आर्ट कॉलेज जा ही रही थी कि रास्ते में दुर्धटनाग्रस्त हो गई।फार्म नहीं जमा कर पाई।चित्रकार बनने का सपना ,सपना ही रह गया।अध्ययन का शौक था ही।सिविल सर्विस की तैयारी में लग गई।प्रथम बार में मेन्स क्वालीफाई  कर गई।साक्षात्कार में सफलता नहीं मिली।ईश्वर ने मेरे लिए कुछ और तय किया था।
बचपन से मन में एक छटपटाहट थी कि मुझे कुछ बनना है ।क्या बनना है अभी तक दिशा स्पष्ट नहीं हो पाई थी।दूसरी बार फिर से कोशिश करना चाहती थी कि माँ को कैंसर हो गया।हम सभी परेशानियों में घिर गए।घर का माहौल बदल गया।माँ का टाटा मेमोरियल ,मुंबई में इलाज चलने लगा।परेशानियों का दौर था.....।मेरी माँ प्रचण्ड जिजीविषा की धनी थीं।पापा को माँ के कैंसर हो जाने के कारण गहरा सदमा लगा था।छः महीने बाद पापा का देहांत हो गया।अब अकेली माँ पर हम सभी संतानों की जिम्मेदारी आ गई।उन्होंने मजबूती से घर संभाला।पंद्रह वर्ष कैंसर से लड़ती रहीं। पापा के देहान्त के छः महीने बाद मेरा विवाह हुआ फिर उसके एक महीना बाद ही मेरी बहन की शादी हो गई  ।माँ ने समय पर योग्य वर-वधु का चयन कर सबका घर बसा कर अपने दायित्व का निर्वहन  किया।आज मुझे ऐसा लगा मानो  सामने माँ खड़ी हैं और मुझसे कह रही हैं-"तू तो मेरी बेटी है न !इतनी जल्दी हिम्मत हार गई?" चिंतन गहन चिंतन नहीं ।   मैं हार नहीं मानूंगी।
भय मुर्छित हुआ।दृढ़ संकल्प हौसला के साथ जाग उठा।मौत आयेगी .....जब आयेगी।अभी तो मैं जीवित हूँ।मन धीरे -धीरे शांत होने लगा ....एक एहसास कि मैं शरीर नहीं . ..विराट का अंश हूँ.....सर्वशक्तिमान....।यह अवसर इस लिए प्राप्त हुआ कि मृत्यु के बहुत करीब आ कर जीवन के प्रयोजन को समझ सकूं।खुद से मिल कर अपनी प्रतिभा को ढूढ़ सकूं।लक्ष्य जो गर्भावस्था में था प्रसवित हुआ।स्वयं के भीतर का प्रकाश  आलोकित हुआ।
अवलोकन स्पष्ट हुआ।माँ सरस्वती की मुझ पर हमेशा कृपा रही ।चित्रकला,नृत्य,गायन और अध्ययन में रुचि थी।शौकिया तौर पर सब किया करती थी किन्तु क्या बनना है?कैसे बनना है ?क्यों बनना है?कहाँ तय कर पाई थी!फिर शादी हो गई।घर-गृहस्थी में फँस कर रह गई।इतने वर्ष कैसे बीत गये पता ही न चला।अपनी दिली इच्छाओं को मन के किसी कोने में दबा कर भूल ही गई थी ....लेकिन.. जीवन- मरण के इस सूक्ष्म अंतराल के इस गहन चिंतन से मेरा लक्ष्य तय हो चुका था कि  लेखन क्षेत्र में स्वयं को स्थापित करना है।संकल्पित मन से जीने की प्रबल चाह जाग उठी।जर्जर तन में उत्साह का संचार होने लगा।स्वास्थ में तेजी से सुधार होने लगा।डाक्टर हैरान!कुछ ही दिनों बाद मृत्यु के खतरे से बाहर आ गई।
अस्पताल से घर आ कर आराम ही करना था अतः घर पर लेटे बैठे खूब अध्ययन -मनन किया करती।विचार मस्तिष्क से उतर कर मन से हृदय तक पहुँच निःसृत होकर शब्दों के माध्यम से पन्नों पर अभिव्यक्ति पाने लगे।मैं अपने आस-पास को बाहरी आँखों से तो देखती ही रही किन्तु विषय को हृदय से पकड़ना भी सीखने लगी।। विषय की बारीकियों के हर पहलुओं को सूक्ष्मता से सजग होकर जाँचती,परखती ,पड़ताल करती।छोटी-छोटी चीजों को अपनी रचनाओं में उसकी महत्ता को रखकर उसे विशिष्ट बनाती ।मेरी रचनाएं डायरी के पन्नों से आजाद हो फेसबुक,वाट्सअप ,ब्लाग के माध्यम से लोगों तक पहुँचने लगी।सराहना मिलने लगी।
कहते है न!जहाँ चाह वहीं राह!अभिव्यक्ति की इस यात्रा को आगे बढ़ाने में अनेक साहित्यिक एवं आध्यात्मिक मनीषियों से प्रेरणा मिलने लगी।उनलोगों ने मेरी रचनाधर्मिता को खूब प्रोत्साहन दिया ।उनलोगों के सानिध्य में रचनाओं को पढ़ने,  समझने की व्यापक दृष्टि मिली।मेरे अंदर की सर्जनाशक्ति को शब्दों में ढ़ालने की नयी ऊर्जा मिली ।साहित्यिक यात्रा के दौरान परमहंस स्वामी योगानंद की आत्मकथा"योगी कथामृत"पढ़ने के पश्चात मेरे आन्तरिक व्यक्तित्व को नयी दिशा मिली।अर्न्तजगत की अर्न्तयात्रा के लिए प्रेरणा मिली ।विज्ञान की छात्रा होने के नाते सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकनात्मक प्रवृति जो बाह्य थी आन्तरिक एवं गहरी होती गयी।स्थितियों -परिस्थितियों को देखने/अवलोकन का दृष्टिकोण बदलने लगा।हृदयपटल पर साहित्य सर्जना के पुष्प खिलने लगे।
अपने पतिदेव द्वारा पग -पग पर मिले प्रोत्साहन ,सहयोग और परामर्श का सात्विक प्रतिफलन कविता-संग्रह को पुस्तक का रूप मिला।साहित्यिक आयोजनों में भाग लेने लगी ।पुरस्कारों से सम्मानित होने लगी।
स्वयं से स्वयं के मौन संवाद से मेरी रचनाएं निरन्तर जन्म ले रही है।आज मैं बेहद प्रसन्न हूँ कि स्वयं से बेहद खूबसूरत  रिश्ता निभा पा रही हूँ।सबके साथ  संबंधों को निभाते हुए खुद के लिए भी जी रही हूँ...।


 



*पूनम सिन्हा श्रेयसी"
पटना, बिहार


05 अप्रैल 2020 को महिला उत्‍थान दिवस पर आयो‍जित
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