मन से होली - रश्‍मी

होली विशेष


"माँ, आपको लगता है कि मैं कोशिश नहीं कर रही पर उस घर मे रहना आसान नहीं"- मानसी बोली। "बेटा थोड़ी सहनशक्ति रखना पड़ती है घर परिवार में, कोई ऐसे घर थोड़े ही छोड़ सकते हैं"- गुझिया को सुनहरा तलते हुए माँ ने समझाया। "अब त्यौहार सर पर है और तू घर से यहाँ आ गई।", "अरे माँ, इन लोगों का तो क्या है बस कुछ कहो मत गाय की तरह सर हिलाते रहो और काम करते रहो, हर बात में किच किच है वहाँ।" तभी मोबाइल की घंटी बजी। मानसी बोली- "देखो जी, अब निर्णय तो करना ही पड़ेगा मैं नहीं आना चाहती।आप को जो भी समझना है मम्मी जी को समझाइए।" "मानसी, मम्मी जी का स्वभाव ही ऐसा है यार तुम मेरे आने तक रुकती तो सही, अपना समझ कर बोल देती हैं वे। इतना बुरा कोई मानता है क्या? चलो बैग पैक करो मैं आ रहा हूँ तुम्हे लेने"- मानसी के पति सचिन बोले। "प्लीज सचिन मुझे मजबूर मत करो"- मानसी ने कह कर फोन काट दिया। "चलो मानसी अब किचन साफ कर दो फिर बेसन बर्फी बनाते हैं और हाँ, दो कप चाय बना ले अपने लिए"- कहते हुए माँ अपने कमरे में चली गई। मानसी ने देखा माँ को उसके दुख से कोई लेना देना ही नहीं। "मानसी, एक कप चाय और बढ़ा दे निकिता आती ही होगी ऑफिस से"- माँ बोली। "बहुत लाड़ आ रहा बहू पर"- मानसी कसमसाई। इतने में ही मानसी की भाभी निकिता आ गई। "अरे, मम्मी जी मार्केट में बहुत भीड़ है देखो ये रंग और गुलाल लाई हूँ... दीदी, आज शाम को होलिका पूजन का सामान भी ले आई हूँ"- निकिता बोली। मानसी के मन में अलग ही उधेड़बुन चल रही थी। जिंदगी भर इतनी मेहनत की इस घर को संवारा सजाया और ये देखो महारानी बनी है, माँ तो हाथों पर रखती है इसको- मन ही मन मानसी बोली। "निकिता बेटा तुम थोड़ा रेस्ट कर लो फिर रात के खाने और होलिका पूजन की तैयारी करना"- कहती हुई माँ ने चाशनी की कढ़ाई चढ़ा दी। "माँ, मेरा सर दुख रहा है मैं अपने कमरे में जा रही हूँ"- कहते हुए मानसी बिस्तर पर जा पड़ी। बहुत उथल पुथल थी उसके मन में। क्या करे क्या नहीं कुछ समझ नहीं पा रही थी।
पकवान बन गए...पूजन की तैयारी हो गई... रात का खाना भी तैयार हो गया... धुलेंडी पर क्या क्या करना है... मानसी को लगातार किचन से भाभी और माँ की आवाजें आ रहीं थी। निकिता और माँ ने जानबूझ कर उसको अपने साथ शामिल नहीं किया, आज त्यौहार के दिन बहुत अकेला महसूस हुआ उसको। फिर भी भाभी और माँ के साथ वह भी खूब सज संवर के होलिका पूजन और होलिका दहन के लिए गली के नुक्कड़ तक गई। अड़ोस-पड़ोस की महिलाएं भी पूजन को आईं थीं। सब लोग बहुत खुश थे। निकिता ने कुछ महिलाओं के पैर छू कर आशीर्वाद भी लिया। महिलाएं मानसी से उसके पति के, ससुराल के हालचाल पूछतीं तो वह बस मुस्कुरा देती। उसने महसूस किया कि भाभी उससे कहीं ज्यादा समझदार है, भाभी ने साल भर में ही अपने ससुराल को अपना लिया, पास पड़ोस में घुलमिल गई जो वह अपने ससुराल में चार साल में भी नहीं कर पाई।
पर इतना बुरा भी नहीं उसका ससुराल, ख़ूब आजादी है उसको, ससुर जी कितनी तारीफ करते हैं उसके बनाये हुए खाने की, सास भी बेटा बेटा कहते नहीं थकती, सचिन तो जान छिड़कते हैं उस पर... ऐसे अनगिनत तर्क उसके दिमाग मे होलिका की लपटों के साथ साथ ऊँचे उठने लगे। माँ ने प्रसाद की थाली मानसी और निकिता की ओर बढ़ा कर कहा- लो बेटा सबको प्रसाद दे दो। पर मानसी की निगाहें तो होलिका से निकल रही लपटों और धुएँ के पार अनंत तक जाने कहाँ देख रही थी। अचानक उसकी नजर धुएँ से होती हुई एक युवक के कुर्ते पर टिक गई। ठीक ऐसा ही कुर्ता वह सचिन के लिए लाई थी इसी मैरिज एनिवर्सरी पर... और ये व्यक्ति कितना मिलता है सचिन से...अरे, इसका स्टाइल भी मेरे सचिन जैसा ही है...जीन्स के साथ कुर्ता...पर ये है कौन जो मेरे सचिन से इतना मिलता है...। वह और ध्यान से देखने लगी। देखते देखते थोड़ा और निकट पहुंची। जैसे ही लपट और धुंआ काम हुआ... "ओह्ह माय गॉड सचिन आप..." कहते हुए मानसी सचिन से लिपट गई। मानसी की आँखों से निकली अश्रुधारा ने उसी समय धुलेंडी मना ली। चारों तरफ खुशियां ही खुशियां बिखर गईं। सभी लोग एक दूसरे को होली की बधाइयाँ दे रहे थे। एक दूसरे को गुलाल लगा रहे थे। निकिता और माँ अपनी योजना में सफल हुईं। बच्चे होली-होली चिल्ला रहे थे। चारों तरफ होली होली की गूँज थी, आखिर मानसी भी आज सच में मन से ससुराल की...और सचिन की हो..ली।


 श्रीमती रश्मि चौधरी
विजय नगर, इंदौर


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