रचनाकार संख्या- 97
मुकुट हिमालय के शीश से निकलकर,
पावन धरा पे इठ्लाती आती गंगा है।
अमृत समान जल गंगा माँ का भारत में,
कल-कल,कल-कल गीत गाती गंगा है।
सभी को लुभाने वाली हीरे-मोती देनी वाली,
धरती पे अन्न यहाँ उपजाती गंगा है।
निकट न मानव के रोग कभी आने पाये,
काया सबकी निरोग भी बनाती गंगा है।।
(2)
मातु गंगा कह रही आज जनमानस से,
मेरे आंचल को कभी गंदा न किया करो।
स्वच्छ निर्मल नीर मेरा रहा सदियों से,
रोग शोक का विरोधी इसको पिया करो।
काया सबकी निरोगी होती मेरे जल से है,
औषधि समझकर नित्य ही लिया करो।
देश ही नहीं विदेश वाले हमे पूजते है,
अमृत समान नीर सबको दिया करो।।
रचनाकार
डा0विद्यासागर मिश्र"सागर"
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