ओम का -भटक रहा मन

प्रेम फरवरी


लिखने बैठूँ प्रेम गीत जब, करुणा स्वयं छलक जाती है
सुखद रुपहले मन उपवन में, अद्भुत रीत झलक जाती है।।
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भटक रहा मन व्योम पटल पर, आकर राह दिखाते जाओ।
मन का सूनापन कम तो हो, कुछ तो युक्ति बताते जाओ।
आप न आये लाख बुलाया, तब नैनों को मूँदा मैनें।
सुखद हुई अनुभूति आपकी, जब नैनों को मूँदा मैने।।
 युग - युग से जो रही मिलन की, अब दिख वही ललक जाती है।
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मूक समर्पण प्रियवर मेरा, निष्ठुर आप हुए हो कैसे।
कभी कमी जो रही प्रीत मे, संकेतों में मुझसे कहते।
सुनो प्रीत यह अति विस्तृत है, नभ का वश कब इसे समेटे।
इसी प्रीत मे सरावोर मन, भटक रहा जित आप ठहरते।
यही अवस्था देख निरंतर, रह - रह भीग पलक जाती है।
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दूर भला रह पाऊं कैसे, जन्मों का बंधन है अपना।
कार्य यही रहगया आजकल, नाम आपका दिनभर जपना।
धरती अम्बर सूर्य चंद्रमा, विहँस रहे तारे साक्षी हैं।
दिग - नक्षत्र ये ग्रह - उपग्रह, नदी - सिन्धु खारे  साक्षी हैं।
प्रियतम छवि ये बड़ी अलौकिक, भव के द्वार तलक जाती है
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ओम प्रकाश शुक्ल


 


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