तुम बिन -आरती राॅय

"सब कहते हैं अब वह सामान्य जिंदगी जीने लगी है । क्या आपको भी ऐसा लगता है ? अकेले में दहाड़ें मार कर रोते हुए कोई नहीं देखता है। अच्छा है ना ; वो कहते हैं ना 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय, सुन इठलैईहें लोग सब बाँट ना लईहें कोय'  , मैं क्यों आपको यह सब बता रही हूँ । आप तो अब अंतर्यामी हो गये हैं , बच्चों ने कितने ख़ूबसूरत फ्रेम में सजा  दिया है आपको ।आज नवरात्रि का नौ दिनों का पूजन हवन सब संपन्न हो गया। नाते-रिश्तेदार फोन पर आशीर्वाद माँग रहे हैं, कहाँ से दूँ ? क्यों इतनी खोखली हो गई हूँ । ऐसा लगता है अब मेरे पास देने के लिये कुछ भी नहीं है।एक अंतहीन कल की आस में आपकी यादों के सहारे अपने-आप से बातें करते वक्त बीतता है।किससे पुछूँ कब तक यह वक्त यूँ ही बिताना होगा ? जितनी मुँह उतनी बातें ; कुछ लोग कहते हैं , बच्चों के पास चली जायें वहां बच्चों के बीच मन लग जायेगा । कैसे कहूँ वहाँ भी एक दो दिन मन लगेगा  फिर वही अकेलापन कमरे में दम घुटता रहेगा ।क्योंकि हम उम्र एवं हमसफर बच्चे नहीं हो सकते ना ।भाषा अलग सोच अलग कैसे अपने मन को समझाऊँ?बच्चों के पास सुबहो-शाम पार्क में जरूर जाती हूँ ,वहाँ भी एक भयावह सन्नाटा पसरा रहता है। क्यों इतनी बातूनी हूँ ? शायद इसी वजह से बात करने के लिये बेचैन रहती हूँ। थकान नहीं फिर भी थक रही हूँ। बुढ़ी नहीं हुई ,फिर भी झुकना सीख रही हूँ ,शायद अब अर्धांग नहीं रहा इसका अहसास हर पल रहता है। जब आँसू आँखों में आते हैं तो आपके साथ बिताये पलों को याद कर अपने आप बहने लगते हैं।याद है मैं गुस्से में आपको कहती थी , पूजा करना आपने कभी नहीं सीखा , फिर भी हवन करना आपको बहुत पसंद था ।अभी हवन नहीं की हूँ , हवन से यह बात याद आ गई क्यों इतनी जल्दी गये ?शायद यह अहसास दिलाने के लिए कि , जोड़ी जुगल-जोड़ी क्यों कही जाती है ? 


जानते हैं,जितना स्वयं से लड़ती हूँ खुद को संभालने के लिये ,उससे ज्यादा अपने अपनापन जता कर पुनः तोड़ देते हैं। सांत्वना से बिखरती हूँ।चाह कर भी किसी को नहीं कहती हूँ ।वरना तथाकथित अपने हमें हमारे हाल पर छोड़ देंगे।
वो कहावत है ना ; मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज की चुभन भी जरूरी है। वक्त कभी रेत की तरह फिसलता है कभी पहाड़ सी जिंदगी लगती है। देखते देखते ग्यारह महीने बीत गये।इन ग्यारह महीनों में अगर सबसे बड़ा सबल कुछ बना तो हमारी लेखनी , लिखते पढ़ते आँखें  भी साथ छोड़ने लगी ,फिर भी खुद को समझाती थी ,यह विपत्ति तुम अकेले नहीं झेल रही हो, सदियों से यह होता आया है ।कोई साथ नहीं आया  है और ना  कोई साथ  जाता है।अब तो जिस घर को अपना ड्रीम होम कहती थी , उससे भी मन उचाट हो गया है, बागों में आपके बिना फूलों ने खिलना कम कर दिया है। शायद मेरी उदासी से वह भी उदास हो रहे हैं। बच्चे अब आपकी बरषी पर आने के लिए टिकट ले लिए हैं। अगर खुशी का माहौल रहता तो साल भर पहले से ही मैं आपको मेनू डिसाइड करने कैटरर को काल  करने कहती । पागल हूँ ना ; चाह कर भी मनोद्गार किसी से साझा नहीं कर पाती ।हाँ जीना है तो जीने की कोशिश में निरंतर प्रयत्नशील रहती हूँ । इस बार हिंदी तिथि के अनुसार आठ जनवरी यानि दस दिन पहले पुण्यतिथि पर सपरिवार जमा होंगे।ओह ! सपरिवार कहाँ आपके लाडले बहनोई भी तो आपके पास बस डेढ़ महीने बाद चले गए।जाते जाते उन्हें भी शायद साथी चाहिए था , आपके छोटे भाई को भी कैंसर के बहाने अपने पास आप बुला लिये।
कैसे इंसान मरणोपरांत भी चक्रव्यूह रच सकता है। शायद आप हमारे हौसले को परखना चाहते थे ,तभी तो सूने घर आँगन में आधी रात को जब नींद उचट जाती है तो दिल करता है किसी से बातें करूँ।सब कुछ मुझे देकर गये, काश कुछ दिन और साथ देते तो बुढ़ापे एवं बीमारी की वज़ह से  आपके जाने के बाद स्वयं को तसल्ली दे लेती ।ढ़ाढ़स खुद को देती हूँ , फिर घबरा जाती हूँ कब तक स्वयं को समेटना संभालना होगा । एक एक कर खुशियों के बीच किये गुनाह भी याद आने लगते हैं । हमारी शादी के अगले वर्ष ही बापू जी गुजर गए थे । माँ जी की उम्र यही कोई पैंतालीस के आसपास रही होगी , साल में तीन-चार महीने उनके पास जाकर रहती थी । फिर भी उस समय समझ नहीं थी कि लाख माँ जी का ख्याल रखने के बाद भी उनकी आँखें सूनी सूनी सी क्यों लगती हैं ?आज भी बच्चे हर पल दूर रह कर भी ख्याल रखते हैं, आर्थिक मानसिक सारी कमियों को यथा संभव दूर करने का प्रयत्न करते हैं , फिर भी एक अंजाने भय के आगोश में लिपटती जा रही हूँ । क्या प्रयत्न करुँ कैसे प्रयत्न करूँ कि जीवन जितनी बची है उद्देश्य पूर्ण बना कर जीना सीख लूँ । निरुद्देश्य जिंदगी तो मौत से बदतर है। आप हर रंजोगम से दूर हैं, काश जीता जागता इंसान भी जीना सीख ले।


"कैसे याद करूँ उस पल को जब आपके जाने के बाद दो दो कमाऊ पुत्र हैं ,भरा पूरा परिवार है अच्छी खासी पेंशन भी आती है फिर भी दया की पात्र बन गई हूँ ।""बस हाथ में कटोरा नहीं है ,मगर अपने तो अपने अब समाज की नज़र में भी याचक से ज्यादा मेरी हैसियत नहीं है । फिर बरसी आ रही है, लोक लाज निभाना ही पड़ता है , कैसे कोई इतना निर्दयी हो सकता है। एक आपके जाने के बाद खुशियाँ मनाना भूल गई , स्वरूचि भोजन बनाना भूल गई। हर पल अगर कुछ याद रहता है तो 'विधवा' जो मात्र दया की पात्र समझी जाती है। अपने भी आखिर कब तक मेरे संग आँसू बहायेंगे ? एक एक कर सारे त्योहार आते चले गये ,दया सबने दिखाई ,मगर विकल्प बस इतना कि बच्चों के पास चली जाओ।सब यह नहीं सोचते हैंं कि बच्चों की अपनी गृहस्थी है ,वहाँ जाऊँगी तो फिर तालमेल बिठाते-बिठाते गूम हो जाऊँगी । गूम-सूम तो यहाँ भी रहती हूँ पर यह चिंता नहीं रहती कि किसी को कुछ बुरा लगेगा । आपके श्राद्ध के समय मैंने वह परंपरा तोड़ दी ,किसी को तोहफा यानि विदाई नहीं की ।आपकी पहली बरसी करने के बाद बच्चों के पास आ गई हूँ । बस एकाकीपन का रोना यहाँ भी , बेटे बहु एवं छोटे बच्चों के बीच घिरी रहती हूँ फिर भी अकेलेपन से ऊब जाती हूँ । विदेशी हवाएं हमें अक्सर घायल करती हैं ,जन्म-मरण के बीच जीवंतता कैसे लाऊँ काश किसी बुजुर्ग से पूछ पाती ।वो एक गाना सदैव याद आता है "सबकी विदाई मैंनें की हाय, मुझको विदा करने कौन आये ?"हाँ सही कह रही हूँ ; पहले माँ बाबूजी को विदाई दी ,फिर आपको विदाई दी । अब मुझे विदा कौन करेगा ? यह सोचते ही नींद उचट जाती है। जी बहलाने की कोशिश में आँसू सदा चुपके से सहेली बन आँखों में समाती है।  सभी हमारी गंभीरता का कारण पूछते हैं, क्या कहूँ अधूरी जिंदगी में मुस्कान कभी नहीं आती है।"



आरती रॉय. दरभंगा बिहार.


 




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