तुम्हारे दरम्यां-शीला मनोहर शर्मा 

होली विशेष


यह गहरा रंग जो मेरे तुम्हारे दरम्यां हें
बेशक मुलाजिम हम अलग अलग पर मंजिले हयात एक हैं
अलसुबह जब तुम उनीदीं आंखों से देखते रहते आलस्य के आगोश में .
मेरी हाजिरी लग जाती ,खुल जाता रजिस्टर ,रखनी पड़ती पैनी नजर.
 असली नकली ताजी बासी पौष्टिक के अलिखित गणित पर .
किसी एक का भी घटा जोड़ गलत हो जाए तो बज उठता मृदंग पल भर में .
रूआब जमाना, सलाम लेना, छुट्टी में मौज मस्ती यह तुम्हारी दिनचर्या 
हफ्ते दिन साल महीने छुट्टी शब्द  खारिज यहमेरी सतत परिचर्या 
फिर भी हम तुम संग संग ,भीग गये रंग में
 सरोवर इकदूजे  में बने चितचोर राग रंग चंगमें .
तुम रिश्तो को बाहर भीतर ,जोड़-तोड़ करते अपने स्वार्थ वश मुनाफे की तहत, तोल मोल निभाते 
मैं भावनाओं के रंगों से रिश्तो को सींचती 
जब भी झरे पिचकारी से नवरंग , सहज अपने अंतर्मन में  पिरोती 
हर बात हम में तुम में असमान है
 बोनस भी मुझको ज्यादा मिलता 
बच्चों को यश ,बड़ों को सुकून , करती कार्य अनुसार सब को प्रफुल्लित .
तब देखती हूं तुम्हारी आंखों में अपनेलिये सतरंगी चमक
कर्मइत्र  छिटकूं र्सवत्र, पर पाती महक तुम्हारी सांसो में द्विगुणित 
 तब लगता मैं ही मुलाजिम मैं ही साहिब मैं कुदरत की नायाब नेमत,बोरें रंग रंग में
हम तुम संग में


शीला मनोहर शर्मा 
रामदास पेठ
नागपुर


 




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