व्याकुल गंगा- नूतन सिन्हा

गंगा मिशन..रचनकार संख्या ..91
गंगा की धारा ढूँढ रही है ,कहीं सुकून भरा किनारा ।
 बह रही भटकती इत -उत उसकी धारा।। कहीं न ओर-छोड़ है । गंगा मुख मोड़ रही है।।
सोच व्याकुल गंगा का मन कुंठित होता कभी ऐंठा उसका तन।
 तड़प रही संकुचित हुआ शिथिल उसका मन ।।
गंगा की व्याकुलता को देख सका न पवन का वेग ।
झट से विचलित होकर बहाया अपना संवेग।।
 मानो लग रहा ,जैसे कोशिश कर रहा हो, गंगा को बहलाने फुसलाने की।
 पर गंगा भला कौन सी थी नादान ।।
वो कभी सोचती और जगाती अपने स्मृति पटल को।
 अतीत को कर याद बस सुना रही फरियाद ।
कभी गर्वित हुआ करता  था मन , 
जब लोग कहते थे,
 गंगा माँ !तू अपनी स्वच्छ और पवित्र जल धारा से कर दे स्वच्छ मेरा तन-मन।
 धरती से स्वर्ग तक पहुँचाने वाली इस गंगा माँ का काँप उठा तन-मन।।
 फिर कह उठती! अब लज्जित होता मन। हमारा प्रयत्न रहा हर वक्त स्वच्छ पवित्रता से भरा बिताने का जीवन ।।
यथार्थ में कैसी दशा हुई हमारी !
कैसी हालात और स्थिति बन गयी हमारी!
जिसे देख -देख नयनों से छलकते अश्रू की धारा ।
क्या बहेगी मेरी स्वच्छ धारा ।।
गंगा की लहड़े ढूँढ रही कहती फिरती जाऊँ तो जाऊँ किधर ?
एक ओर निर्माण होता रेत सीमेंट लोहे की दीवार ब्रिज और छुक-छुक करती हुई लम्बी रेलगाड़ी ।
काँप उठा और धड़क हुआ मन भारी।।
 दूजा डाल रहे हर वक्त कूड़े कचड़े,
 तो कभी बहते शहरों की नालियों से गिरते गंदे पानी ।।
भड़क उठी माँ गंगा और कहती !
मैली गंगा होती नहीं मैले हो जाते इन्सान। रह न पाता उनका कोई ईमान।। पुन:कहती हमारी बहती धारा को जो मानव बाधा पहुँचाते ।
वे अपना जीवन को दुर्भाग्य बनाते।। क्योंकि !
मैं गंगा माँ हूँ !
मुझे वाधित कर लो जितना चाहे ।
अंत में मैं ही समेटुंगी तुम्हें ,
फिर कहती अब तू!
ढूँढ ले अपना किनारा,
उस वक्त भी थी मैं तेरा सहारा,
आज अब भी मैं ही तारुँगी तुम्हें ।।
पार लगाऊँगी तेरे जीवन की नैया।
 मेरे अलावा कोई नहीं तेरा खेवैया ।।
नूतन सिन्हा 
पटना बिहार ।



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