अकेलापन-किरण

 


   मैं हूँ अब बिल्कुल अकेली
   कहना भी है अजब पहेली
   सूरज भी होता है अकेला
   है चन्दा भी अकेला अलबेला
  
   फिर भी चमकते हैं दिन रात 
   नहीं किसी का लेते हैं साथ 


  एक अकेली ही है धरती 
  घूमती रहती कभी न थकती
  अम्बर भी तो अकेला रहता 
  सबका है जो आश्रय दाता 


 नदी झरने भी अकेले हैं बहते 
 थकान पल में सबकी हर लेते


 है निडर वृक्ष भी खड़ा अकेला 
 प्रकृति का है हर रूप अकेला 
 जन्म लेता इंसान अकेला
 मरता भी है वो अकेला 


फिर क्यों है अफसोस,हम हैं अकेले 
किसलिए ये सोच किसी को साथ ले लें 


इस उलझन से सुलझ किरण
चक्रव्यूह से अब निकल 
ना रख किसी से कोई आशा 
इस मृगतृष्णा से तू उबर



               ---©किरण बाला 
                   (चण्डीगढ़)



 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ