होली विशेष
बिना गुलाल
गाल हुए हैं लाल
ये कैसा रंग
तुम हो साथ
क्या दिन क्या है रात
चलती बात
मेरी डोली
फूलों से भरी झोली
तेरी मैं हो ली
रंगा क्यों तूने
अपने ही रंग में
मनवा झूमे
पलाश हुई
भीतर बाहर मैं
हूँ अनछुई
अधरों पर
साजन का ही घर
जीवन भर
सेमल फूला
बाहों का हो झूला
आया वसंत
सुनो
चलो न
फागुन आया है
देखो तो,हर पुष्प इठलाया है
और तुम
मुझे इठलाने भी नहीं देते...?
सुनो
आओ न
चलते हैं पलाश के जंगल
जोगिया चोला पहना है वो
आशीष ले आते हैं उससे....
सुनो
मानो न
मेरी आज एक बात
ये बदन अपना तुम उतार दो
मैं भी उतार आती हूँ
चलो फिर
रंग खेलते हैं हम दोनों
पक्का वाला
चूड़ी रंग से भी अधिक पक्का
जन्मों तक न उतरे जो
रूह हो रंगी रंगी
बदन रहे साफ़-सुथरा
उसी कमरे में पड़ा
और अनन्त तक चले
ये होली का त्यौहार...........
शुचि(भवि)........
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