क्या सही मायने में निर्भया को न्याय मिल पाया? मृत्यु दण्ड दे कर क्या निर्भया की आत्मा को शांति मिल पाएगी? क्या निर्भया के दोषियों को फाँसी पर लटकाने के पश्चात बलात्कारियों की उत्पत्ति रुक जाएगी?एक साथ कई सवाल ज़ेहन में फाँसी से पहले भी थेऔर अब फाँसी होने के बाद भी रह -रह कर झिंझोड़ रहे हैं।आख़िर कौन देगा इन सबके जवाब! हाँ इतना अवश्य है कि निर्भया की माँ ने राहत की साँस ली होगी।दो हज़ार बारह से लेकर अब तक न्याय का दरवाज़ा खटखटाते हुए उनके पैरों में पड़े छालों को अवश्य राहत मिली होगी लेकिन न ही उनके दर्द का अंत होगा और न ही निर्भया की आत्मा को शांति मिलेगी।
सोचने वाली बात है जो जघन्य कृत्य निर्भया के साथ किया गया जिसे सोचने मात्र से ही रूह काँप जाती है उस अपराध के लिए फाँसी पर लटका देना !चन्द मिनटों में आख़िर कितनी तड़प मिली होगी! न जाने क्यों निर्भया की माँ उनके लिए मौत माँगती रह गई।इस तरह के दरिंदों के लिए इतनी आसान सज़ा?
इनके लिए तो ज़िन्दा रहना ही सबसे बड़ी सजा होती जब उनका एक हाथ और एक पैर तोड़ दिया जाता और हर रोज़ उनसे कठिन से कठिन कार्य करवाया जाता।जो उन्हें उनके द्वारा किए गए अपराधों का एहसास हर पल कराता। उनको ज़िन्दा देख भविष्य में पैदा होने वाले दरिंदों को भी जघन्य कृत्य करने से पहले कुछ तो डर होता। मौत तो कुछ ही दिनों में दिलोदिमाग से निकल जाएगी लेकिन ज़िन्दा त्रासदी तो पल पल याद दिलाती रहती........।पश्चाताप का भी अवसर प्राप्त होता।हो सकता है हैवान से इन्सान बनने का भी सफ़र शुरू होता।
प्रश्न उठता है कि क्या इस तरह के अपराधों के लिए ये दरिन्दे अकेले जिम्मेदार थे? नहीं.. बिल्कुल भी नहीं...कहीं न कहीं हम सब भी जिम्मेदार हैं.... सबसे पहले इनको जन्म देने वाले माता-पिता , जिन्होंने न जाने कौनसी मानसिकता के रहते हुए इनका बीजारोपण किया ! जन्म के बाद जब इनकी छोटी छोटी ग़लतियों पर इन्हें अगाह नहीं किया गया...। बच्चों की ग़लतियों को छुपाने की कोशिश अक़्सर माता पिता के द्वारा किया जाना..।
हमारा फिल्मी जगत तो सबसे अधिक गुनहगार है इस तरह के जघन्य अपराधों का ...। जिस तरह के अश्लील दृश्यों को अक़्सर फ़िल्मों में परोसा जाता है उन्हें देखकर तो कोई भी बहक जाय तो इस तरह की मानसिकता वालों का क्या कहना....।न जाने सेंसर बोर्ड को इतनी सी बात क्यों नहीं समझ आती ! वही हाल प्रिंट मीडिया का है जो इतनी कामुकतापूर्ण तस्वीरों से सजा रहता है जिन्हें देखकर हर कोई नयनसुख लेता रहता है तो फिर मानसिक रोगियों के विकार तो बढ़ेंगे ही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो सारी ही हदें पार कर दी हैं ।कोई भी वेबसाइट खोलिये अचानक से ऐसे दृश्य सामने आ जाएँगे जिनको देखकर संयमी भी फिसल जाएँगे तब फिर ऐसे मानसिक रोगियों की तो बात ही छोड़ दीजिए।
ऐसे जघन्य अपराधों को जन्म देने में हम सभी जिम्मेदार हैं किसी ख़ास वर्ग को ही दोष देने से हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते।इस तरह के अपराध तब तक समाप्त नहीं हो सकते जब तक हर नागरिक अपनी भूमिका ईमानदारी के साथ निभाने के लिए संकल्पित न हो जाय। क्या हम सब मिलकर इस तरह के अश्लील साहित्य, अश्लील दृश्य,अश्लील फिल्मों, अश्लील इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहिष्कार करने को तैयार हैं? यदि हाँ.. तभी हम एक स्वस्थ समाज की कल्पना करने के हक़दार हो सकते हैं जिसमें हर निर्भया निर्भय होकर विचरण कर सकती है। हर युवा एक आदर्श व्यक्तित्व का धनी हो सकता है ।जहाँ फिर किसी की मौत पर मिठाई बाँटने और ख़ुशी मनाने की आवश्यकता न हो।
माधुरी भट्ट
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