एक गांव था । उस गांव में एक नीम का पेड़ था ।पेड़ की छांव में बैठकर प्रेमिका अपने प्रेमी के खयाल में खोई थी ,कुछ देर बाद एक लम्बी सांस लेकर जब वो खुद को सम्भालती है, और यह कह कर , उठ कर जाने लगती है कि ऐसा कहां होता है ,जैसे ही वह उठी ,उसका प्रेमी उसके सामने खड़ा दिखता है ,वो आंख में आंसू भरे हुए प्रेमी को एकटक देखने लगती है , और प्रेमी भी उसके निश्छल निष्कपट मासूम प्रेम को उसकी आंखों में पढ़ लेता है । फिर प्रेमिका यह सोचते हुए कि ऐसा कहां हो सकता है कि वह मेरे सोचते ही मेरे याद आते ही ,वो मेरे सामने आ जाएगा । ये सब कुछ सोचते हुए प्रेमिका को सब कुछ हकीकत लगने लगता है ,और वो दोनों एक दूसरे से बातें भी करते हैं , कुछ की देर में उसे अहसास होने लगा कि यह तो वहम है , यहां कोई नहीं ।
उदासी की तस्वीर लिए , बिना किसी वादे के भी मन में एक इन्तजार करते हुए वह अपने घर की ओर चलने लगती है , अभी दस पांच कदम ही चली थी कि उसका प्रेमी फिर उसके सामने होता है ,वह उसे देखकर वहम समझ कर फिर से आगे की ओर बढ़ने लगती है ,और प्रेमिका को अहसास दिलाता है कि मैं हूं तुम्हारे सामने , ये कोई वहम नहीं है , फिर दोनों एक दूसरे को रुंधी हुई नजरों से देखते रहते हैं , बहुत कुछ कहना चाहते हैं , बहुत सी कही अनकही बातें ख़ामोश नजरों से करते हुए एक दूसरे का सुख दुख बांटते हैं , नि:स्वार्थ मुहब्बत के इस लम्बे अन्तराल में भी उनका प्रेम पवित्र है , इतने में चिड़ियां चहकने लगती है , मंद-मंद हवा चलने लगती है , सूर्य की सुनहरी लालिमा उसके झरोखे से उसके चेहरे पर अपनी छटा बिखेरने लगती हैं , तभी उसकी आंख खुल जाती है ,अब वहां न कोई प्रेमी है न पेड़ की छांव , न ही वो गांव ।
ये प्रेम ही तो है जो बरसों से न मिला हो , फिर भी चाहत कम न हुई हो , बिना मिले भी जिससे बहुत सी बातें हुई हो , जिसे सोचकर मन खुश हों जाए , वो प्रेम नहीं तो और क्या ?जो सामने न होकर भी नज़रों के सामने हो वो प्रेम नहीं तो क्या ?
प्रेम की कोई परिभाषा नहीं ,ये तो अनन्त है असीमित है ।आज के दौर को देखते हुए रूह से प्रेम करने वाले कम ही दिखते हैं ।
सिम्पल काव्यधारा
प्रयागराज
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