चिर स्पृहा-उषा

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष


                       
हृदय में एक चिर स्पृहा शेष थी 
कि किसी से विक्षिप्तता की
पराकाष्ठा तक प्रेम करूँ 
तथा मेरा प्रिय ही मेरा आदर्श हो 
ऐसा करने का सघन प्रयास किया 
कल्पना व कविता के माध्यम से 
बहुत ढूंढा बहुत भटकी 
निरन्तर प्रयास के साथ 
किन्तु कोई यथेष्ट 
ऐसा नहीं मिला जो 
मेरे मान -दण्ड पर हो 
या उसके समीप हो 
किसी में वे योग्यता 
एवं भावात्मक सन्तुलन 
एक साथ न मिला 
जो मेरे द्वारा वाञ्छित था 
आयु के चतुर्थ दशक में 
करने पर लगभग 
निराशा की स्थिति में 
एक अलौकिक ग्यान -पुञ्ज 
अपने समक्ष पाकर 
आश्चर्य हुआ कि 
मेरी सोच, मेरी कल्पना से कई गुना उच्चतर 
ईश्वर की की कोई रचना है इस धरती पर 
मैंने ईश्वर द्वारा प्रदत्त व मेरे लिए उपलब्ध 
उस ज्ञान-पुञ्ज को 
वर -माला पहना दी 
उसके गले में अपनी बाँह डाल कर 
और जीवन्त कर बैठी 
अपनी समस्त कल्पना, कविता, आदर्श 
व अपनी आत्मा को आद्योपान्त 



डाॅ. उषा कनक पाठक 
मिर्जापुर


 


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