पुस्तक चर्चा - दार्शनिक क्रांतिकारी भगत सिंह संस्मरणात्मक कथा
लेखिका अनुव्रता श्रीवास्तव प्रकाशक रवीना प्रकाशन दिल्ली
मूल्य 300रु प्रथम संस्करण 2019
समय की मांग है कि देश भक्त शहीदो के योगदान से नई पीढ़ी को अवगत करवाने के पुरजोर प्रयास हों . भगतसिंह किताबों में कैद हैं. उनको किताबों से बाहर लाना जरूरी है . उनके विचारो की प्रासंगिकता का एक उदाहरण साम्प्रदायिकता के हल के संदर्भ में देखा जा सकता है . आजादी के बरसो बाद आज भी साम्प्रदायिकता देश की बड़ी समस्या बनी हुई है, जब तब हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़क उठते हैं . भगत सिंह के युवा दिनो में 1924 में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए थे , भगतसिंह ने देखा कि दंगो में दो अलग अलग धर्मावलंबी परस्पर लोगो की हत्या किसी गलती पर नही वरन केवल इसलिये कर रहे थे , क्योकि वे परस्पर अलग धर्मो के थे , तो उनका युवा मन आक्रोशित हो उठा . स्वाभाविक रूप से दोनो ही धर्मो के सिद्धांतो में हत्या को कुत्सित और धर्म विरुद्ध बताया गया है . क्षुब्ध होकर व्यक्तिगत रूप से स्वयं भगत सिंह तो नास्तिकता की ओर बढ़ गये उन्होने जो अवधारणा व्यक्त की , कि धर्म व्यैक्तिक विषय होना चाहिये , सामूहिक नही वह आज भी सर्वथा उपयुक्त है. उनके अनुसार " साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है . भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। कलकत्ते के दंगों में एक अच्छी बात भी देखने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्ग चेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।" भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर बात कर उनको बहस के केन्द्र में लाना युवा पीढ़ी को दिशा दर्शन के लिये वांछनीय है. भगतसिंह ने कहा था कि देश में सामाजिक क्रांति के लिये किसान, मजदूर और नौजवानो में एकता होनी चाहिए. साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्ग के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उन्होने न केवल मौलिक विचार दिये थे बल्कि अपने आचरण से उदाहरण बने . उनके चरित्र का अनुशीलन और विचारों को आत्मसात कर आज समाज को सही दिशा दी जा सकती है . उनके विचार शाश्वत हैं , आज भी प्रासंगिक हैं . इस दृष्टि से वर्तमान स्थितियों में युवा लेखिका अनुव्रता श्रीवास्तव की यह किताब पठनीय व अनुकरणीय है जो संस्करणात्मक तरीके से भगत सिंह को समझने में मदद करती है . यदि कभी अखण्ड भारत का पुनर्निमाण हुआ तो लाहौर बाघा बार्डर ही वह द्वार होगा जहां दोनो ओर के जन समुदाय एक दूसरे को गले लगाने बढ़ आयेंगे , और तब लाहौर स्वयं सजीव हो बोल पड़े जैसा इस कथा में लेखिका ने उसके माध्यम से अभिव्यक्त किया है तो किंचित आश्चर्य नही , क्योंकि सच यही है कि राजनेता कितना ही बैर पाल लें पर बार्डर पार निर्बाध आती जाती हवा , स्वर लहरी और पक्षियो की बिना पासपोर्ट आवाजाही को कोई सेना नही रोक सकती . भगत सिंग भारत पाकिस्तान दोनो ही मुल्कों के हीरो थे हैं और सदैव रहेंगे . किताब बार बार पठनीय व मनन करने योग्य है .
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , जबलपुर
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