ये धरती का आँचल,
अंबर का साया।
श्रृष्टि ने इन्हें कैसा ,
सुँदर है बनाया।
ये नदियाँ जो बहती,
हैं कल-कल अविचल।
हमको ये कहती हैं,
तू बढ़े चल बढ़े चल।
अपने ही आँचल में,
सब कुछ है सहती।
नहीं भेद ये रखती,
जरा कुछ न कहती।
सहनशीलता तुमको
किसने है सिखाया।
ये पेड़ों को देखो,
अडिग से खड़े हैं।
जीवन के पथ में ,
अकेले लड़े हैं।
हमें वायु देते ये,
हमें प्राण देते।
हमें कर्मफल का ये,
सदा ज्ञान देते।
सबको ये देते हैं,
धूप और छाया।
ये चंदा को देखो ,
शीतलता देता।
शीतल पवन संग,
मन को हर लेता।
ये चली जो हवायें,
कभी न हैं थकती।
सशक्त रहना कहती,
यही भाव रखती।
ये धरती पर ठंडक
कहांँ से बुलाया।
ये सूरज की किरणें,
जीवन की आशा।
मानो ये हरती हैं
सभी की निराशा।
नभ के ये तारे हैं,
लगते हैं प्यारे।
ये चादर में जैसे ,
पिरोये सितारे।
चमक सितारों में,
कहां से बनाया।
डॉ रामकुमार चतुर्वेदी
सिवनी मध्यप्रदेश
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