संस्‍मरण मॉं -पुनीता भारद्वाज

बात पिछले वर्ष की है मेरे मम्मी और पापा उज्जैन में रहते थे। पापा लकवे से ग्रस्त होने के साथ ही गालब्लेडर की पथरी बायल डक्ट में फंस जाने के कारण भयंकर पीलिये से ग्रस्त थे। उन्हें उज्जैन के पुष्पा मिशन अस्पताल और भीलवाड़ा तथा उदयपुर में इलाज के लिए ले जाया जा चुका था। डॉ. जवाब दे चुके थे। अतः, पापा बोनस की जिंदगी जी रहे थे। भैया जो मुझसे बड़े थे पहले ही हमें छोड़कर जा चुके थे।‌ एक दिन अचानक मम्मी का फोन आया कि वे गिर गई हैं। वे पहले से ही रीढ़ की हड्डी में खराबी के कारण लगभग बिस्तर पर ही थीं। यह सुनते ही मेरे होश उड़ गए।‌खुद को सम्हालते हुए बातचीत के दौरान उन्हें सांत्वना देने के बाद तुरंत डॉक्टर को दिखाने के लिए कहा। तीन - चार दिन निकलने के बाद भी छुट्टियाँ आदि के चलते वह डॉक्टर को नहीं दिखा सकीं, उनकी आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है। अतः, मैंने फैसला लिया कि मैं स्वयं उज्जैन जाकर उन्हें डॉक्टर को दिखाकर इलाज कराकर ही आऊँगी। 
भीलवाड़ा से ही नेट पर उज्जैन के आर्थोपेडिक डाक्टर का नंबर खोजा। उनसे बात करने पर वह मुझे बहुत सुलझे हुए लगे। मैं उज्जैन पहुँची तो देखा माँ का उल्टा हाथ पूरा काला पड़ गया था। उसी दिन डॉक्टर से समय लेकर जांच कराई। डॉक्टर ने ने जाँच आदि के उपरांत कंधे की बाल सर्जरी द्वारा बदलने की सलाह दी। आपरेशन बहुत मँहगा था। फिर भी डॉक्टर से अनुरोध करने पर उन्होंने कुछ कम कर दिया। आपरेशन के लिए मम्मी को भर्ती कर लिया गया। आपरेशन से पहले मुझे एक फार्म पकड़ा दिया गया। फॉर्म में आपरेशन के दौरान होनेवाली रिस्क की शर्तें लिखीं थी। हस्ताक्षर करने के लिए कहते हुए रिसेप्शनिस्ट ने फार्म मुझे पकड़ाया। मैं फार्म पर लिखी शर्तें पढ़ना चाहती थी लेकिन सब कुछ धुँधला दिख रहा था। रिसेप्शनिस्ट ने कहा - 'मेडम! साइन।' मेरी तंद्रा अचानक टूटी। फार्म पकड़ते समय मैं स्वयं को बहुत बेबस महसूस कर रही थी। मेरे हाथ काँप रहे थे। आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया था। मरता क्या न करता, जैसे तैसे खुद को सम्हाला और फॉर्म पर हस्ताक्षर किये।
सुबह ग्यारह बजे के करीब माँ को वार्ड से आपरेशन थियेटर के लिए ले जाया गया। ऑपरेशन थियेटर ऊपर तीसरी मंजिल पर था। सुबह से शाम के साढ़े सात - आठ बज गए। बार- बार मम्मी का हाल जानने के लिए मैं, मेरी छोटी बहन, पापा और मेरा बेटा परेशान होते रहे। पापा की आँखें नम थीं। वह इस समय अपने को एकदम असहाय महसूस कर रहे थे। मैं उनकी पीड़ा को भाँप गई थी। इसलिए स्वयं को एकदम सामान्य जताने के प्रयास में लगी हुई थी। 
यशु (मेरा बेटा) को भेजकर थोड़े पोहे और चाय हमने पास की दुकान से मँगाए। न चाहते हुए भी हँसी - मजाक करते हुए थोड़े - थोड़े पोहे सबने खाए। दिन ढ़लने लगा था । हर आहट पर हमारी आँखें चौकन्नी होकर मम्मी को देखने को आतुर थीं। शुभचिंतकों और परिजनों के फोन लगातार आ रहे थे। इस तरह समय धीरे - धीरे बीत रहा था। फोन की हर घंटी पर पापा और बब्बी (मेरी छोटी बहन) कातर दृष्टि से मेरी ओर देख रहे थे। अचानक एक जोर की दर्द भरी लम्बी चीख सुनाई दी, साथ ही नर्स ने आकर पूछा कि - 'गुड़िया कौन है?' मैंने कहा - 'मैं। वह बेतहाशा आपरेशन थियेटर की तरफ दौड़ी साथ ही मैं और मेरी बहन भी। मैं नर्स के पीछे थी, वह लिफ्ट में घुस गई। मैं भी उसके पीछे-पीछे घुस गई। लिफ्ट में ऊपर पहुँचने तक वह दर्द भरी लम्बी चीख सुनाई पड़ रही थी।  मेरी जान तो जैसे निकली जा रही थी। उन चंद लम्हों ने मुझे न जाने क्या- क्या सोचने पर मजबूर कर दिया था। लग रहा था यह मेरी माँ की अंतिम आवाज़ (चीख) है; जिसे मैं सुन रही हूँ। सब खेल खत्म - सा होता दिख रहा था। इतने में ही आपरेशन थियेटर से मम्मी को स्ट्रेचर पर‌ बाहर लाया गया।
मम्मी तो जैसे अंतिम सांस ले रही थीं और गफ़लत में कहती जा रहीं थीं कि "गुड़िया में जा रही हूँ।" इस अस्पताल में अपने साथ कुछ गलत हो रहा है। तुम सँभलकर रहना वगैरह-वगैरह, न जाने क्या - क्या बोल रहीं थीं। मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी। सोच रही थी पापा को कैसे सँभाल पाऊँगी जो नीचे वार्ड में हमारे आने का इंतजार कर रहे हैं? वार्ड बाय वगैरह मम्मी को फटाफट वार्ड में पलंग पर लिटाकर मुझे कहने लगे - 'आपके पेशेंट को अब आप सँभालो। हमारे वश में नहीं है इन्हें सँभालना। मम्मी पानी की जिद करते- करते बार - बार बेहोश हो रहीं थीं। नब्ज़ साथ छोड़ रही थी पर बालाजी पर मेरा विश्वास अभी भी मेरे साथ था। पापा को दिया हुआ वचन कि "मेरे होते हुए मम्मी का बाल भी बाँका नहीं होने दूँगी। " रह - रहकर मुझे अपने कर्तव्य बोध की ओर धकेल रहा था। पूरा वार्ड स्तब्ध होकर कभी मुझे तो कभी मम्मी को देख रहा था, सभी की आँखें नम थी। सब ईश्वर से प्रार्थना करते नज़र आ रहे थे। खैर! जैसे-तैसे समय बीता तो मम्मी को थोड़ा पानी पिलाया गया। अब मम्मी ने कुछ ठीक महसूस किया। उनके साथ ही हमारी रुकी हुई साँसें भी चलने लगी। काल पर किसका वश चलता है। पापा तो हमारा साथ जून में छोड़कर देवलोक चले गए। माँ का आपरेशन दुबारा कराने के बाद भी सफल नहीं रहा परंतु मम्मी हमारे साथ हैं यह सभी की दुआओं और डॉक्टर की मेहनत का असर है।


पुनीता भारद्वाज (भीलवाड़ा)


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