उनकी तपन से दूर थे हम
वरना आधे से झुलस जाते हम
कर लिया है मांझी से किनारा
वरना मंझधार में ही डूब जाते हम
रास आयी है जफाये उनकी
वरना झूठी वफाओ में उलझ जाते हम
तसब्बुर में मिल लेते है उनसे
वरना हकीकत में ढूढ ते रह जाते हम
सम्हाला है दरके दिल को बमुश्किल
वरना कभी के बिखर जाते हम
बयाँ करते जो दास्ताँ ए दर्द
तो एक मज़ाक बन कर रह जाते हम
जख्मो पर लपेटा है खुशियों का मुलम्मा
वरना पत्थर की मानिंद हो जाते हम
डॉ रीता शर्मा विदिशा
0 टिप्पणियाँ