अधूरी देह -निशा

एक दिन आपका में निशा की काव्य 


 


अधूरी देह में लिपटी एक आत्मा


हाँ, मैं अधूरी देह में लिपटी
एक आत्मा हूँ
पर, तुम तो संपूर्ण काया रखकर भी
अधूरे लगते हो मुझे
हँसते हो मुझ पर
मेरी मिथ्या बनावट पर
अपनी दोगली आँखों से
घूरते हो मुझे
जैसे कि
इस अधूरी देह को बनाने में
मेरा स्वयं का दोष है।
अगर रखते हो हिम्मत
तो जोड़ लो   इस अधूरी देह को भी
समाज की मुख्य धारा से।
अपशब्दों से मत उड़ाओ
मजाक मेरा
जीना चाहती हूँ मैं भी
सामाजिक जीवन
मेरे अंदर भी धड़कता है
एक मासूम सा दिल
ममता, करुणा से भरा हृदय
पर नहीं दी जाती है तवज्जो उसको
क्योंकि वह रहता है
एक अधूरी देह में।
मैं भी जीना चाहती हूँ बचपन
स्कूल में सहपाठियों संग खेल कूद कर पढ़ना चाहती हूँ
किशोरावस्था में नादानियाँ  करती हुई
युवावस्था की दहलीज पर कदम
रखना चाहती हूँ
हैं मेरी भी इच्छाएं आकांक्षाएं
जिन्हें मैं पूरा करना चाहती हूँ
पर अधूरी देह कह कर
दुत्कार दिया जाता है
पर नहीं समझोगे तुम
इस अधूरी देह में भी
एक पूरा दिल मैं भी रखती हूँ।


निशा नंदिनी, तिनसुकिया आसाम



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