अल्हड़ सी लड़की-निशा

एक दिन आपका में निशा की काव्य रचना


अल्हड़ सी लड़की बन जाऊँ
मन करता है आज फिर से वो
अल्हड़ सी लड़की बन जाऊँ।


जो चिड़िया सी फुदकती रहती थी
घर के कोने-कोने में
माँ की मार और पिता की
डांट खाती थी।
कभी स्कूल के बस्ते से चिड़कर
पटकती उठाती थी,
कैरम,लूडो,सांप-सीढ़ी के खेल में
छोटे भाई-बहनों संग
उलझती झगड़ती थी।
रक्षा-बंधन पर भाई संग पतंग उड़ाती थी।
तब सोचती थी मैं,
जल्दी से बड़ी बन जाऊँ।
मन करता है आज फिर से वो
अल्हड़ सी लड़की बन जाऊँ।


वो जो बेहद प्यार करती थी अपने आप से
दिन भर खड़ी हो आईने के आगे सजती सवंरती थी।
पिता के पानदान से छिपकर पान खाकर
जीभ और होटों को रचती थी।
माँ का बनाया सुरमई काजल,                                       आँखों से न उड़ने देती थी।
मेंहदी के पत्ते तोड़,सिलबट्टे पर


पीसकर हाथों में सजाती थी।
न जाने दिन भर में कितने स्वांग रचाती थी।
स्कूल में हुड़दंग मचाती
खुशियां लुटाती थी।
तब सोचती थी मैं,
जल्दी से बड़ी बन जाऊँ।
मन करता है आज फिर से वो
अल्हड़ सी लड़की बन जाऊँ।


टेड़े-मेड़े मुहँ बनाकर अपने


आपको शीशे में निहारती थी
खुल कर हँसती,गाती, खिलखिलाती थी।
चीजें छुपाकर भैया की उन्हें तंग
करती थी।
कभी चुपके से साइकिल की


हवा निकाल देती थी।
बगीचे के पेड़ों पर चढ़कर
फल तो़ड़कर खाती और
पक्षियों के घोंसले सजाती थी।
यह लड़की कब बड़ी होगी
दिन भर यह माँ से सुनती थी।
तब सोचती थी मैं,
जल्दी से बड़ी बन जाऊँ।
मन करता है आज फिर से वो
अल्हड़ सी लड़की बन जाऊँ।


 


निशा नंदिनी, तिनसुकिया



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