एक दिन आपका में अमिता मराठे की आत्मकथा
जिन्दगी का अंतिम पड़ाव जिसमें बीते लम्हो का अच्छा सा संग्रह हो जाता हैं।उस पर कई उपन्यास भी लिखे जा सकते है।किन्तु मुझे कुछ ऐसे प्रेरणादायी प्रसंग जो समय समय पर मेरा मार्गदर्शन करते रहे हैं।उन्हें भूलाने की कोशिश करने पर भी भूलाये नहीं जा सकते। मेरा जन्म मालवा प्रदेश के एक गांव बड़वानी में हुआ था।गांव सम्पन्न था ।वहाँ के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय मे पिताजी जिन्हें हम दादा कहते थे गणित संस्कृत के शिक्षक थे।घर में गाय भैंस बछडे बन्धे रहते थे ।शुध्द दूध, घी,ताजी सब्जियों से घर भरा रहता था।
किन्तु मैं दो साल की हुई तब दादा का तबादला इन्दौर शहर में हो गया था।दादा जन प्रिय शिक्षक थे।घर मे भी गणित प्रेमी विद्यार्थियो का जमावड़ा बना रहता था।धीरे-धीरे हमारा ग्यारह भाई बहनो का परिवार हो गया था।दादाजी का सोच था बच्चे भगवान् की देन है।उसे स्वीकारना और पालना करना कर्तव्य होता है।
बस फिर क्या मां का सारी जिन्दगी भर बच्चो को देखने का ही काम बना रहा। हम सभी बच्चे कोई डाॅक्टर इंजीनियर व्याख्याता डाक्टरेट पदवी धारी बने ।पिताजी द्वारा दी गई योग्य पढा़ई तथा मां का प्यार भरा लालन-पालन का ऋण किस रूप मे चुकाऊं सोचकर एक दिन मैं दादाजी के पास बैठी थी।मैंने पूछा आपके समान मुझे भी किताबो का शौक है मैं भविष्य में एक लायब्रेरी बनाऊंगी, आपके समान आत्मकथा लिखूंगी उन्होंने मुस्कराकर कहा था जरूर उसके लिए बहुत कुछ त्याग करना पडेगा ।नियमित दिनचर्या बनानी होगी।मैने उनकी बातो की गाँठ बाँध ली हथी ।
वे जब छात्रो को लेकर बैठते थे।मैं ध्यान से सुनती थी।करीब पचास से अधिक बच्चे अनुशासन मे पढ़ते थे ।स्कूल मे भी समय व क्लास कोर्स का पूरा अटेन्शन रहता था। जोशी सर के नाम से पूरा शहर जानता था।मैं उन्हे सब समाचार देती थी।मां व पिताजी के साथ हम भाई बहनो का अलग लगाव था।एक कतार मे भोजन के लिए बैठते थे ।सबको जिम्मेदारी सौंप दी गई थी बड़ी दीदी रोटियाँ सेंकती थी।मां बेलती थी ।ये आज भी घर के भोजन का महत्व समझाता है ।
सभी काम नियमित करने की आदत ने मुझे ससुराल मे तीन बेटो को सम्हालते सावधान रहने की आदत पडी।मां कहती थी जितना प्यार दोगे उतना प्यार मिलेगा ।यह सोच अपनाने पर दस सदस्यो के परिवार मे सुख शान्ति है।
मुझे समाज के लिए सहयोग करने का मौका मिल जाता है।दुर्भाग्य वश मेरी छोटी बहन जो टाॅयफाईड जैसी बीमारी से कर्णबधिर हो गई थी ।किन्तु उसने भी अपनी हिम्मत पर नेचोरोपैथी डॉक्टर बनी और आज मूक-बधिर बच्चो के लिए ख्याति प्राप्त संस्था चला रही है ।मेरा मानना है उसे यह आत्मिक शक्ति हमारे माता-पिता से प्राप्त हुई थी।आज विगत चालीस सालो से मै भी इस संस्था से जुड़ी हूं।बचपन की घटनायें कभी भी स्मृति का दरवाजा खटखटाने
लगती है तब लगता है यदि बचपन योग्य मार्गदर्शन में व्यतीत होगा तो भविष्य में खुशियाँ सहेजना कठिन नहीं होगा ।प्रतिदिन फोटो को हार चढाते लगता दादा पूछ रहे है सब ठीक है बेटा" मैं भी उस श्रेष्ठ आत्माओ को दिल से शुभभावना शुभकामना देतीहूं जन्म दाता के शुभ संकेत मिलते रहते हैं।खुश रहो खुशी बाटो "इस संदेश को की भूलती नहीं हूं।
अमिता मराठे
इन्दौर
मौलिक
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