मेरा जन्म दिल्ली के करौल बाग क्षेत्र के एक पहाड़ी इलाका बापा नगर में 22 जुलाई 1969 (स्कूल में 15 जून 1970 लिखित है ) को हुआ माता गौरा देवी सिवाल की आठ संतान में चार पुत्र व चार पुत्रियों में मैं सबसे छोटी सातवीं संतान रही,मुझसे छोटा एक भाई राजपाल सिवाल माँ कहती थी मैं, जब बहुत छोटी थी तभी पिता जी का स्वर्गामन हो गया था। और विपरीत परिस्थिति में माँ के कंधों पर ही पूरे घर की जिम्मेदारी आ गयी थी। माँ एक सादगीपूर्ण महिला पढ़ीलिखी तो नहीं थी लेकिन क-ख-ग-घ अक्षर ज्ञान बखूबी था। माँ सुघड़ ग्रहणी समझदार विद्वत महिला थी पूरा जीवन कपड़े सिलाई करके अपनी सभी जिम्मेदारियों को बड़ी संजीदगी से निभाया उन्हीं के प्रयासों से मैंने किताबी ज्ञान प्राप्त किया। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण डिग्रियों का दस्तावेज तो न हो पाया। "चन्द्रकांता" व मीरा (नाम पिता प्रेम में दिया गया सुखद अनुभूति) एक साधारण सी लड़की जिसके लिए अच्छी बेटी के मायने बड़ो का सम्मान माता -पिता की मान मर्यादा गृहकार्यों में निपुणता एवं बहू का बड़ा सा घूंघट में चुप रहना यही मापदंड था।
माँ को सांस की बीमारी थी लंबे समय से दवाइयां ही उनका सहारा थी इसीलिए उनके सामने मेरा विवाह एकमात्र स्वप्न था 12 जून 1992 में मेरा विवाह श्री धर्मराज डीगवाल पुत्र (स्व.जौहरीराम डीगवाल) के साथ संपन्न हुआ 16 अप्रैल 1993 में मैंने अपनी पहली संतान एक पुत्री (गीतिका डीगवाल) को जन्म दिया। बिटिया के एक वर्ष पूर्ण होते होते ही मुझे पारिवारिक परिस्थितियों में सामांजस्य बिठाने के लिए 19 अप्रैल 1994 में सुपर बाजार में लेडी सर्चर की नौकरी की परन्तु 1995 में बेटे के जन्म से पूर्व काम छोड़ना पड़ा क्योंकि दोनों बच्चों का पालन पोषण देखभाल की जिम्मेदारी मेरे लिए अतिमहत्वपूर्ण थी। समय का चक्र चलता गया इसी बीच घर पर ही कुछ छोटा मोटा काम जारी रहा।
ज़िन्दगी जैसे हर मोड़ पर इम्तिहान ले रही थी परिस्थितिवश मुझे दिसम्बर 1997 में एक हॉस्पिटल में नौकरी मिली बहुत खुश थी चुनौतियों से लड़ना और आगे बढ़ना मेरे जीवन की शरू से ही प्राथमिकता रही परन्तु ये जॉब भी मुझे रास न आई और छोटी बेटी (डिम्पल)के जन्म 14 अक्टूबर से पूर्व अगस्त 1998 में वो भी छोड़नी पड़ी पारिवारिक जिम्मेदारी बड़ी चुनौती के रूप में दरवाजे खड़ी थी...
ततपश्चात जीवन की गाड़ी जैसे तैसे चलती जा रही थी
परन्तु 19 मार्च 2009 में माँ की मौत ने मेरे मनोबल को तोड़ दिया.. एक माँ थी जिसे देखा था, सुना था,चाहा था, जिसके बिना जीना संभव नहीं था लगा इस दुःख की पीड़ा असहनीय है एक वर्ष होने का था "माँ भुलाए नहीं भुलाई जा रही थी की ऊपर वाले का एक और कहर 23 मार्च 2010 को मेरे पति की लंबी बीमारी दौरान मृत्यु ने मुझे पूरी तरह तोड़कर रख दिया। और मैं एक युवावस्था से सीधा 70 साला वर्द्धावस्था की स्थिति में पहुंच गई थी ये वक्त मेरे लिए बेइंतहा दर्द पीड़ादायक रहा जिसका कोई शब्दविन्यास नहीं जिसमें मुझे जीवन का कटु अनुभव रिश्तों का सच का कटु अनुभव रहा फिर भी जीवन चलायमान रहा आखिर विपरीत परिस्थितियों से जूझते -जूझते एक नारी के संघर्ष में एक माँ हार गई थी 19 मई 2016 को मेरी नन्ही परी मेरी 17 वर्षीय बेटी उस परमपिता परमात्मा की गोद में समा गई थी। बस अब चारों और अंधेरा ही अंधेरा था...
कोशिश तो बहुत की थी हर तौर पर
तीरगी मिट न पाई चराग़ों तले
हवा भी रुख बदलती रही,रात भर
एक कतरा अदद रौशनी के लिए
आत्मा के बगैर जिस्म जिंदा था। आखिर क्यूँ कैसे कहाँ किधर जाऊं कोई राह सुझाई नहीं दे रही थी... मगर मेरी कविता मेरे पहलू में बैठी थी मुझे उबारने के लिए बस उसी के सहारे मेरा अब तक का सफ़र निरन्तर ...
ह्र्दय के धरातल पर पड़ती हैं जब ओस की बूँदें, खिलती हैं कवँल सी, जब मन की पीर गुनगुनाती है,, एक आस जब खास होती है, कविता सबके पास होती है..
कहेंगे दिल की कुछ और फिर कभी,
अभी तो दर्द को भी सहलाना बाकी है..
चन्द्रकांता सिवाल "चन्द्रेश"
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