अन्तर्यात्रा-सीमा

कभी-कभी मुलाकात भी जरूरी है 


भागते हैं हम सदैव बाहर की ओर
नहीं मिलता कहीं भी निश्छल ठौर
पंचतत्व से बना ये मानव शरीर
मोह लिप्सा मद मत्सर जमे भीतर 
मन को खींचें सौन्दर्य में करते लिप्त
मानव मन लट्टू हो काटता चक्कर 
 सुरा सुन्दरी तेरी मेरी में खोया है
मानव तू लम्बी तान के सोया है 


किंतु यह माया महाठगिनी है
संतो ने बात यह विशेष जानी है 
बाहरी रूप-रंग में ही यह अटकाती है
रंगमंच पर नाटकीय लीला खिलाती है
मदारी के जैसे नाच नचाती है
पिला के विषयों की मदिरा
चौरासी के चक्कर कटवाती है 
यदि भीतर गहन उतरना है तो 
ईश को स्वयं में खोजना है तो 


मोह का पड़ा परदा हटाना होगा
शांत चित्त भीतर गहरे जाना होगा 
जहाँ सारी हलचलें शांत हो जाती है
अन्तर्मुख होने से अपनी पहचान होती है 
अन्तस की सुन्दरता जगमग होती दीप्त
शौच संयम सदाचार से होती ये प्रदीप्त 
प्राणी ना कुछ लाये ना कुछ ले जाते हैं
खाली हाथ आये खाली हाथ जाते हैं 
बस कर्मों की गठरी साथ ले जाते हैं
उत्तम प्राणी पुण्य कर्मों से ना घबराते हैं
 
कभी-कभी मुलाकात भी जरूरी है
पहचानो जिंदगी जो कि अभी अधूरी है 
स्वयं को भीतर से जानना भी जरुरी है
जाग्रत है अन्तर में परम ज्योति तेरे
मानव निरख तू ज्योति रुप के डेरे 
तू अपना आप पहचान ईश स्वरूप है 
कर्मों के फल से मिलता ये रुप स्वरूप है 
घड़ी दो घड़ी मानव ध्यान लगाया कर
मनमूरख भीतर झाड़ू रोज लगाया कर ।


 सीमा गर्ग मंजरी
 मेरी स्वरचित रचना
 मेरठ



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