अनुभा की आत्‍मकथा

एक दिन आपका कालम के तहत प्रकाशित


मेरा नाम अनुभा वर्मा हैं(घर में मेरा नाम बिन्नी हैं)।मेरा जन्म बिहार के पूर्वीचंपारण जिला के मोतिहारी  शहर में हुआ ।मैं तीन भाई बहन हूँ और मेरा स्थान सबसे छोटा हैं ।मैं अपने घर में सबसे छोटी होने के साथ साथ मैं सबकी लाड़ली थी ।मेरे पिता जी भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत थे जो अब अवकाश प्राप्त कर चुके हैं।
मेरी प्रारंभिक पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से हुआ फिर 10th  बिहार बोर्ड से ।इंटर में मैंने आर्ट्स लेते हुए मैं मनोविज्ञान से पोस्ट ग्रेजुएट किया।मैं स्कूल में स्पोर्ट्स गाइड में सक्रिय थी तथा बाद में मैं अपने कॉलेज में होने वाले कार्यक्रम तथा वाद विवाद प्रतियोगिता में  मैं बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती थी।
मैं बचपन से ही पढ़ाई में  अच्छी होने के  साथ साथ अन्य बहुत सारी विषयो में रूचि रखती थी जैसे- संगीत,पेंटिग,कविता ,मिट्टी के खिलौने बनाना इत्यादि ।मेरी इन सब चीजो में रूचि को देखते हुए मुझे शास्त्रीय संगीत की शिक्षा तथा मिटटी के खिलौने, पॉट, मूर्ति आदि चीजो को सीखने की तालीम मिला ।कुछ कर गुजरने की जज्बा ने हमें हमेशा कुछ नया करने या सीखने की और आकर्षित किया।
फिर मेरी शादी  बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के बेतिया के एक संभ्रांत परिवार में हुआ जहाँ मैं अपने ससुराल खानदान की बड़ी बहु बन कर गई।परिवार काफी बड़ा और खुशनुमा था।सास ससुर,ननद देवर सब का प्यार और आदर भी भरपूर मिला ।फिर मैं अपने पति के साथ (जो एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी हैं)उनके जॉब पर चली गई चूँकि मेरे पति का तबादला हर तीन चार साल पे होता था जिसके चलते मुझे काफ़ी जगहों  (बिहार ,झारखण्ड,हरियाणा,महारास्ट्र..)जाने और घूमने का मौका मिला ।मेरे पति का जॉब ही कुछ यैसा हैं की ओ देश विदेश की टूर पर रहते हैं जिससे ज्यादातर बच्चों की जिम्मेदारी हमें ही निभानी रहती हैं। इनसब जगहों पे रहते हुए भी हमेशा मन में ये चाहत थी की मैं कुछ करू चूँकि मेरी बहुत सारी श्रेत्रो में जानकारी थी तो सबने कहा अपना ट्रेनिंग सेंटर खोलो तो कितनो ने कहा हिंदी अच्छी हैं कोई स्कूल ज्वाइन करो पर मै अपने बच्चे( जिन्हे मैं ईस्वर का नायाब तोहफा मानती हूँ)के परवरिश करने में मैं अपनी इच्छा को दबाते हुए की मुझे कुछ करने का आगे बहुत अवसर मिलेगा लेकिन मेरे बच्चों का बचपन लौट कर वापस नहीं आएगा


आज मुझे गर्व होता हैं की जहाँ मेरे बहुत सारे कलीग ये रोना रोते हैं की मेरे बच्चे मेरा कहना नहीं मानते वही मेरे बच्चे अपने माँ पापा की बाते ही नहीं बल्कि अपने चाचा चाची, दादा दादी सभी की बातो को दिल से निभाते हुए उनकी बातो का आदर देते हैं तब हमें एहसास होता है  की वाकई सपनो की उड़ान तो हम किसी उम्र में भर सकते हैं ।आज संस्कारो को जमीन से पकड़ते अपने बच्चों को देख बड़ा सकून मिलता हैं...


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                   अनुभा वर्मा (पटना)


 


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