अपने को मै ढूढ़ रही हूं-अंजू

मैं अपने को ढूंढ रही हूं 
पत्थर पर नाव खे रही हूं।
जीवन का यह कैसा चक्कर 
इधर ढूंढती उधर ढूंढती 
कहाॅ छिपाई अपनी खुशियां 
अपने मन से पूछ रही हूं 
अपने को मैं ढूंढ रही हूं 
ना देखा है चांद का सपना 
ना उड़ पाई परियों के संग 
फिर मेरे -
इस नाजुक दिल को 
किसके कंटीले तारों ने तोड़ा ।
समझ न पाती कह ना पाती 
फिर क्यों लगता -
कुछ ढूंढ रही हूं ।
अश्कों की यह मंदिम धारा 
कह देते हैं मेरा भेद ।
कैसे छुपाऊं ,कहां छुपाऊ
अपने इस श्रांत दिल का दर्द ।
जग हंसता है पागल कहता 
अपने भी हो गए बेगाने ।
लेकिन ,फिर भी खोई -खोयी
जीवन जीने का 
अर्थ ढूंढ रही हूं ,
अपने को मैं ढूंढ रही हूं।


अंजू पुरवार मीरापुर, चैतन्य मार्ग, प्रयागराज।



 


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