बेटी की भूमिका- माधुरी

ईश्वर की बनाई रचना तुम भी हो और में भी हूँ,
ख़ामियों से जुदा तुम भी नहीं और में भी नहीं।


मेरी खामियाँ आती हैं तुरन्त सबको नज़र,
तुम्हारी ख़ामियों का होता नहीं किसी पर कोई असर।


तुम्हें छींक भी आजाए तो मचती पूरे घर में हलचल,


ज्वर में तड़पते हुए भी सम्भालती हूँ मैं पूरा घर।


गृहस्थी की जिम्मेदारी जितनी मेरी है उतनी ही तुम्हारी भी,
मेरी तनिक सी लापरवाही पर तनती भौंहे सबकी,
तुम्हारी लापरवाही देती दुहाई जताने मर्द की।


दिन भर व्यस्त रहते हो तुम तो रहती हूँ मैं भी,
बच्चों की तकलीफ़ पर रात भर जगती मैं हूँ,
'चुप कराओ जल्दी' कहकर चिल्लाते हो तुम ही।


रात भर जागकर भी सुबह की चाय तैयार करनी है मुझे ही,
जगाने पर भी देर हो जाय तुम्हें तो कारण भी बनना है मुझे ही।


सुबह काम पर निकलना तुम्हें भी है तो निकलना है मुझे भी,
तैयारी करनी है सबके लिए मुझेऔर हाथ में पकड़ाना है तुम्हें भी।


विचारों का आदानप्रदान मित्रोंकेसंग करती मैंभी हूँ और तुम भी,
फ़र्क़ है ये कि मेरी नज़दीकियां होती हैं शक के घेरे मेंऔर
तुम्हारी आसानी से बन जाती हैं आपसी ज़रूरतें।


किसी कारणवश देर हो जाए मुझे तो,


प्रश्नों की की बौछार तले भीगना मुझे है,
तुम्हें कितनी भी देर क्यों न हो जाय,वो तो तुम्हारा हक़ है।


दिन भर रहते व्यस्त तुम भी हो तो रहती हूँ मैं भी,
लौटते ही फ़रमाइशें पूरी मुझे करनी हैं और
मनपसंद कार्यक्रम देखते हुए चाय की चुस्कियाँ लेनी हैं तुम्हें ही।


थकान कितनी 
ही क्यों न हो तुम्हारी हर ख़्वाहिश पूरी करनी है मुझे ही,
वरना चेहरा बना कर तेवर दिखाना है तुम्हें ही।


मुझे तो बस नदी की तरह बहते जाना है, रुकना नहीं है,
बिना शिकवे शिक़ायत के फ़रमाइशें करनी हैं पूरी सभी की।


काश!समझाए कोई उन माताओं को,जो समझाती नहीं बेटों को,
कह देती हैं जो शान से घर का काम करना,पत्नी का हाथ बंटाना
तो नामर्दों का काम है।



माधुरी भट्ट



 


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