दर्पण का दोष हम कैसे दें
परिस्थितियों को शोक हम कैसे दें
हमनें चाहा है तूझे होशो हवास में
फिर इस जामे ज़िन्दगी को अफसोस कैसे दें
गर पछतावा है आपको
रस्सी समझ ली आपनें साप को
पहचाननें का हुनर रखिए जनाब
यूं ना बोलिए अनाप शनाप
बेवफ़ाई का मर्म समझने लगा हूं
जिन्दगी के महल में भी दरकनें लगा हूं
काश इस रात की अन्त हो जाती!
मेरे इन आंशुओं की बरसात हो जाती!!
उठते जब सवेरे वो,उसी बारिश से सामना होता!
भीग जाते वो इन आंशुवो की बारिश में!
ये प्रकृति इतना तो कद्रदान हो पाती!!
कहीं अपना भी इस धरा पर ठीकाना होता!
ना होता कोई शिकायतों का गुच्छा!!
अपनी दुनिया भी होती कायनातों से अच्छा!!
मगर ये तो केवल ख्वाब है!
उजाले में तो जिन्दगी एक बहाव है!!
काश फिर ये रात ही ना बीते!
और अपना सुनहला ख्वाब ही ना टूटे!!
कृष्ण कुमार पराशर
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