कहानी
परमजीत कौर एक सुंदर सुशील लड़की थी। जो मेरे घर के सामने बनी सुंदर सी कोठी में रहती थी। उसके माता-पिता पंजाबी थे। मैं अपनी चाची जी के साथ कभी-कभी मन बहलाव के लिए गुरुद्वारा जाती थी। तो वहाँ मुझे परमजीत दीदी भी मिल जाया करती थी। उनके चेहरे पर एक खूबसूरत सी हँसी हमेशा विराजमान रहती थी। उन्हें देखकर मुझे लगता था कि जैसे यह उदास होना जानती ही नहीं है। जीवन में कभी उदास होंगी भी नहीं ।किंतु मेरा अनुमान गलत निकला।
परमजीत दीदी बच्चों से बहुत प्यार किया करती थी। मैं भी उन बच्चों में से ही एक थी ।जिनके प्यार में डूबी हुई मैं सुबह -शाम हंसी ठिठोली करती रहती थी ।एक दिन परमजीत दीदी ने बहुत सुंदर कपड़े पहने, तो मुझे चाची जी ने बताया कि आज उन्हें देखने के लिए लड़के वाले आ रहे हैं। मैंने सभी को कहते सुना कि उनका रिश्ता पक्का हो गया है। लड़का बहुत ही अमीर है ।और कनाडा में नौकरी करता है। परमजीत दीदी के माता-पिता सुख चैन की सांस लेने लगे ।और उनकी शादी की तैयारियां जोरों शोरों पर चल रही थी ।और वह शुभ दिन भी आया जब परमजीत दीदी खुशी की डोली में सवार होकर अपने पिया के घर चली गई ।मुझे परमजीत दीदी की बहुत याद आती थी,किन्तु इस बात की खुशी थी कि वह अपने घर में चैन- सुकून से रह रही है। वैसे भी चाचाजी जी ने मुझे बताया कि बेटी विवाह के बाद बेटी का जीवन ससुराल में ही व्यतीत होता है।और वही लड़की का अपना घर होता है।
एक वर्ष बाद मैंने परमजीत दीदी को गुरुद्वारे में देखा। जहाँ वह अपनी मां के साथ आई हुई थी। उनके चेहरे पर जो हंसती -खेलती मुस्कुराहट में देखती थी ,वह गायब थी ।और आंखों में एक उदासी पसरी हुई थी। मेरे इन प्रश्नों का उत्तर मैंने अपनी चाची जी से पूछा तो उन्होंने कहा" अभी नहीं घर चल कर बताऊंगी "जब हम घर आ गए तब उन्होंने मुझे परमजीत दीदी की सारी कहानी बताई। उन्होंने मुझे बताया कि परमजीत दीदी हंसी-खुशी विदा होकर अपने प्रियतम के घर चली गई थी। किंतु उनके पति के मन मंदिर में कोई और ही औरत बसी हुई थी। जिससे उन्हें दो बच्चे थे। और वह सब कनाडा में ही रहते थे ।उनके पति ने मात्र अपने माता-पिता की खुशी के लिए करमजीत दीदी से शादी की थी ।वह शादी के अगले ही दिन उन्हें छोड़कर कनाडा में नौकरी का बहाना करके चले गए। और फिर साल भर बीत गया उनके इंतजार में ...और वह अभी तक नहीं आये...परमजीत दीदी की सूनी आंखें उनका रास्ता ताकती रही। एक साल बाद उनके पिताजी उन्हें वापस अपने घर ले आए ।पूरे समाज में उनके माता-पिता की खिल्ली उड़ाई जा रही थी। उनके मुँह के सामने तो वे लोग कुछ नहीं कहते चुप ही रहते।
किंतु पीठ पीछे कटाक्ष और बुराइयों के अंबार लगा दिए जाते। इस माहौल में उनके माता-पिता का रहना भी दुश्वार हो रहा था। कुछ समय बाद परमजीत दीदी के माता पिता अपनी कोठी को बेचकर अपने पैतृक गांव पटियाला चले गए ।
परमजीत दीदी वहां से नहीं गई। उन्होंने उसी कोठी में किराए पर एक कमरा ले लिया। और वहां बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी।
अपना खर्च चलाने लगीं। और खुशी की नदी का प्रवाह एकदम से थम गया। परमजीत दीदी एकदम से शांत हो गई ।मानो जैसे नदी का प्रवाह रुक गया है ।मानो जैसे चंचल हवा पर किसी ने लगाम लगा दी हो ।या खूबसूरत तितली को किसी ने मुट्ठी में बंद कर लिया हो । या मधुर संगीत बिखेरती वीणा वादिनी के तार किसी ने बड़ी बेदर्दी से तोड़ दिए हों।अब वह सफेद सूट सलवार में लिपटी रहती ।कोई उनसे कुछ पूछने का प्रयत्न करता तो जवाब ही नहीं देती। समय चक्र यूं ही चलता रहता है धीरे-धीरे लम्हे कब सदियों में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता। और परमजीत दीदी के इस एक तरफा विवाह को भी पच्चीस साल बीत गए ।किंतु उनका इंतजार समाप्त नहीं हुआ। उनको उनके घर और कुटुंब के लोगों ने बहुत समझाया कि वह दूसरा विवाह कर ले। उन्होंने किसी की एक न सुनी ।और बिरहन की भांति इंतजार करती रही ।उस प्रिय के आने का जो सदा- सदा के लिए उनसे अपना प्रेम बंधन छुड़ा कर कनाडा बैठ गया।एक दिन परमजीत दीदी सन्ध्या के समय बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रहीं थीं।तो मकानमालिक ने उन्हें एक पत्र लाकर दिया जो विशेष रूप से उनके लिए ही लिखा था।
प्रिय परमजीत,
मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। मुझे तुम्हारे साथ किये गए अन्याय का फल प्राप्त हो गया है।एक सड़क दुर्घटना में मेरी पत्नी और दोनों बच्चों की मृत्यु हो गयी है। उम्र के इस पड़ाव पर मैं अकेला हो गया हूँ जब मुझे सहारे की सबसे अधिक आवश्यकता थी। मेरे शरीर का आधा हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है। अपना कोई भी कार्य नहीं कर पाता हूँ।
पिंड वालों ने भी मुझसे मुँह फ़ेर लिया है।जब तक तुम्हें यह पत्र प्राप्त होगा, तब तक मैं इस दुनिया से अलविदा कह चुका होऊँगा।क्योंकि मैंने अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय ले लिया है।तुम्हारे सम्मुख इस स्थिति में आने का साहस मुझमें नहीं है।जानता हूँ कि मेरा अपराध अक्षम्य है। हो सके तो मुझे क्षमा कर देना... क्षमा कर देना...
तुम्हारा अपराधी
पत्र पढ़कर परमजीत ठगी सी रह गयी।नियति ने आज उससे प्रतीक्षा करने का अधिकार भी छीन लिया है।विधाता ने उसका भाग्य क्या दर्द की स्याही में डुबोकर लिखा था??जिसमें विरह....वेदना...रुदन...प्रतीक्षा... दुःख... क्रंदन... चीत्कार... के अलावा कुछ और बाकी न लिखा..आज इस बिरहन के जीने की आस समाप्त हो चुकी थी।
प्रीति चौधरी "मनोरमा"
जनपद बुलन्दशहर
उत्तरप्रदेश
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