दायरा-डॉ विजय

पुस्‍तक दिवस विशेष


बहुत ज्यादा फुर्सत में बैठकर सोच ही रहा था की दूध वाले की आवाज आई, परंतु वह हमारा नहीं सामने वालों का दूध वाला था, मैंने पूछा दूध है क्या? उसने कहां बंदी का ही है, नहीं दे सकता। मैं  फिर खामोश होकर आ करके बैठ गया तभी मोबाइल फोन की घंटी घन घना उठी आश्चर्य हुआ सामने वाली भाभी जी का फोन था, हेलो कहां भैया आपको चाय के लिए दूध चाहिए, मेरे अतिरिक्त दूध लिया है मुझे आश्चर्य हुआ करोना के कारण इस कर्फ्यू में ऐसा क्या हुआ कि जिन अड़ोसी पड़ोसियों से कभी बातचीत नहीं हो पाती और न ही कभी उनका ध्यान आ पाता आज इस बात पर अचानक ध्यान चला गया। सोच ही रहा था की भाभी जी ने बोला मैंने बहुत सावधानी से ही दूध वाले से दूध लिया है आप घबराएं नहीं मैं मना नहीं कर पाया दरवाजा खोला एवं बाहर से ही थोड़ा सा दूध ले आया एवं  पुनः समाचार पत्र लेकर बैठ गया, पढ़ते-पढ़ते ख्याल आया कि मेरा जीवन कितना मशीनीकृत हो गया है, सुबह जल्दी से काम निपटा कर गाड़ी उठा कर के ऑफिस के गेट पर पहुंचना, गाड़ी खड़ी करना, हस्ताक्षर करना एवं  शाम को कार्य समाप्त कर घर संबंधी कार्य निपटाते हुए पुनः घर आ जाना और कैद हो जाना। दायरा बहुत बड़ा था परंतु प्रकृति से दूर, अपनों से दूर ,अड़ोसी पड़ोसियों से दूर का  जीवन आकर्षक बहुत परंतु  नीरस एवं दिखावे की खोखली हंसी , खुशी  ओडे हुए था। कर्फ्यू में आज घर में कैद होकर मेरा दायरा बहुत छोटा हो गया था परंतु जब विचार किया तो ऐसा लगा की कितना कुछ देखने को है, सोचने को है, समझने को है ।घर को कभी उस दृष्टि से देखा ही नहीं ।जब चाय पीने के बाद कप यूं ही टेबल पर छोड़ देते थे आज उसे धो कर रखने में जो आनंद आया एवं परिवार को जो सहयोग दिया उसका उल्लेख शब्दों में बहुत मुश्किल है कितने दिनों से हम आपस में बैठे नहीं, विचार विमर्श किया नहीं  अभिव्यक्ति को कभी समझा नहीं, बस नौकरी और भागम भाग ?क्या वही दायरा? इसके अलावा कुछ नहीं,,,? आज ऐसा लगा घर के सभी पेड़ पौधे कुछ कहना चाह रहे हैं, मेरा स्पर्श चाह रहे हैं ।मीठे नीम ने कहा मेरी फूल की सुंदरता तो देखो, गिलहरियों की आवाजाही ने बताया हमारा भी परिवार है हम भी भागदौड़ में लगे हैं, उनकी उछल कूद मौज मस्ती कितनी है यह आज समझ में आया, आज तो गोरैया भी दिखाई दी, पुनः बचपन की यादों में खो गया,। मधुमालती के फूलों के गुच्छे में  झांकती कलियों ने" दो कलियां "फिल्म के पोस्टर की याद दिला दी जिसमें यही कलियां हुआ करती थी।कुत्तों की फौज निडरता के साथ सुनसान गली में मौज मस्ती कर रही है एवं अचानक गेट पर आकर पूंछ हिलाने लगते , जैसे दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हो।इतने में ही बगल के पड़ोसी ने आवाज लगाई, भैया किसी मेडिकल स्टोर वाले का फोन नंबर है क्या? मैंने हां कहा एवं उन्हें नंबर सेंड कर दिया। मैंने पूछा कुछ विशेष? नहीं रोजमर्रा की दवाई जो लगती हैं खत्म हो गई है, कर्फ्यू में ढील के दौरान भी जाने की हिम्मत नहीं है, मैंने आश्वस्त किया यह दुकान वाले भाई साहब आप तक दवाई पहुंचा देंगे। इतने में ही बड़ी दीदी की आवाज आई भैया शक्कर बस आज की ही बची है, मैं तनाव में आया और जोर से कहा शक्कर खत्म हो गई थी तो कल ही बोल देना था। सामने फैक्ट्री वाले अंकल ने इसे सुन लिया, कहां सर जी मेरे पास किराने वाले का नंबर है वह सामग्री नोट कर लेगा एवं दुकान बंद करने के पहले आपको दे जाएगा, मैंने भी कल उस सामान मंगवाया। बड़ा आश्चर्य हुआ ऐसा लगा यह दायरा बढ़ता ही जा रहा है जबकि मैं घर के दायरे में कैद हूं। प्रशासन की व्यवस्था, आदेश एवं स्थिति की गंभीरता सभी चीजों को ध्यान में रखना था, बड़ा अच्छा लगा कि सभी अपने अपने घरों में कैद होते हुए भी आसपास की समस्याओं से अवगत हैं एवं जी जान से मदद करने में लगे हुए हैं। कर्फ्यू के पहले मुझे कभी  इन लोगों के यहां बैठने का, बात करने का समय नहीं मिला और अब  कर्फ्यू में  तो संभव ही नहीं। समझ में नहीं आया कर्फ्यू के पहले का बड़ा दायरा छोटा था या घर में कैद छोटा परंतु इतना बड़ा दायरा जिसने मुझे परिवेश ,प्रकृति एवं परिवार सबको जोड़ दिया था। कितने ही ख्याल  आते ही चले गए।इतने में ही  संस्था प्रमुख जी का फोन आया व्यक्तिगत कुशल क्षेम की जानकारी ली बहुत अच्छा लगा। कुछ संदेशों का आदान-प्रदान हुआ। तभी पास खड़े अपने स्कूटर पर निगाह गई जैसे कह रहा हो मैं भी आपके परिवार का,इस दायरे का ही सदस्य हूं मुझे भी एक बार स्टार्ट करके देख लो,में मुस्कुराया मेरे कदम  स्वतः  ही उसकी ओर बढ़ गए।  


  आलेख: डॉ विजय आर  चौरे


सुदामा नगर इंदौर


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