दिल ही तो है-सीमा



रमेश और गौरव घनिश्ठ मित्र थे। दोनों एक-दूसरे के हमराज़ भी थे और हमदर्द भी थे। दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे और पढ़ाई के साथ-साथ शरारत में भी दोनों एक-दूसरे का साथ देते थे। हर दिन की भाँति दोनों अपनी कक्षा के बाहर बातें कर रहे तभी एक लड़की ने आकर उनसे पूछा, ‘‘जी क्या आप बता सकते हैं कक्षा ग्यारहवीं ‘अ’ किधर है?’’ रमेश ने तपाक से पूछा, ‘‘न्यू एडमिशन? क्या नाम है? हम लोग भी ग्यारहवीं ‘अ’ में ही पढ़ते हैं। कहाँ से आई हो?’’ प्रश्नों की बौछार से लड़की घबरा-सी गई और उसने गौरव से पूछा, ‘‘जी आप बता सकते हैं कक्षा ग्यारहवीं ‘अ’ किधर है?’’ गौरव ने गंभीर होते हुए कहा, ‘‘जी सामने है।’’ गौरव को धन्यवाद देते हुए वह कक्षा में चली जाती है। उसके जाते ही रमेश ने अपने मित्र से पूछा, ‘‘गौरव इसने मेरे सवालों का जवाब क्यों नहीं दिया? भाई मेरी समझ में तो नहीं आया। चल कक्षा में, अध्यापक आ रहे हैं। कक्षा में सारे बच्चे पढ़ाई में लग जाते हैं पर रमेश का पूरा ध्यान उस लड़की पर ही था। शिक्षिका से हुई बातचीत के दौरान पता चला कि उस लड़की का नाम रूपा है और वह कानपुर से आई है। रूपा कक्षा के अन्य छात्राओं से काफी अलग थी। सादगी पसंद, सुंदर, हँसमुख, मिलनसार और बुद्धिमती। वह सोचकर आई थी कि किसी लड़के या लड़की से भी ऐसी  दोस्ती नहीं करेगी जिससे उसकी पढ़ाई बाधित हो। कानपुर से आते समय ही उसकी सहेलियों ने समझा दिया था कि दिल्ली के लड़कों से दूर ही रहना नही ंतो पढ़ाई चैपट हो जाएगी।
रमेश दिल्ली का ही रहने वाला था और पढ़ाई से उसका छत्तीस का आँकड़ा था। शरारती था पर बदतमीज नहीं। कक्षा की सारे बच्चे उसके अच्छे दोस्त थे। आज रूपा का उसे इस तरह नज़रअंदाज़ करना बुरा मानने वाली बात थी, पर उसे पता नहीं क्यों ये बात अच्छी लगी और वह उसकी ओर आकर्शित हो गया। उसे रूपा बहुत अच्छी लगी। उसे गौरव ने समझाया भी कि रूपा की तरफ़ ध्यान न दे। पर किसी के कुछ समझाने से क्या होता उसके दिल ने रूपा को अपना मान लिया था। कुछ ही दिनों में रूपा कक्षा की सभी छात्राओं से न चाहते हुए भी घुल-मिल गई। उसके मिलनसार स्वभाव और हँसमुख चेहरे की वजह से उसकी दोस्ती सबसे हो ही जाती थी। अब वह केवल लड़कों से दूरी बनाए रखने में कामयाब रह पाई थी। हालाँकि रमेश रूपा को बहुत पसंद करता था लेकिन कभी उसने उसे कुछ नहीं कहा। पर ऐसा भी नहीं था कि रूपा रमेश के दिल की बातों से अनजान थी। रमेश की आँखें और रमेश द्वारा रूपा की हर संभव मदद करना उसके मनोभावों को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त था।
देखते-देखते समय पंख लगाकर उड़ गया और कक्षा बारहवीं के विदाई-समारोह का दिन भी आ गया। अब रमेश भी रूपा से प्रेरित होकर पढ़ने लगा था और उसके रंग में ढलने लगा था। विदाई-समारोह के दौरान रमेश को रूपा के निकट आने का मौका मिला और उसने भी उसके साथ कुछ तस्वीरें खिचवाई। आज उसकी खुुशी का ठिकाना नहीं था। ‘विदाई-समारोह’ के बाद जल्दी छुट्टी कर दी गई। सब अपनी व्यवस्था करके घर चले गए। परंतु रूपा तो स्कूल बस से ही घर जाती थी, इसलिए वह चुपचाप बैठकर छोटे बच्चों की छुट्टी होने की प्रतीक्षा करने लगी। रमेश भी घर नहीं गया था और उसने रूपा से घर न जाने की वजह पूछी। रूपा की समस्या सुनकर उसने सहमते हुए उससे पूछा, ‘‘ अगर तुम चाहो तो क्या मैं तुम्हें अपनी गाड़ी में घर छोड़ दूँ? तुम्हारे चार घंटे बच जाएँगे। चलोगी मेरे साथ?’’
रूपा ने उत्तर दिया, ‘‘ठीक है चलो। वैसे भी इसके बाद हम कहाँ मिलेंगे? चलो पर घर तक छोड़ना।’’ रमेश ने खुशी-खुशी अपनी गाड़ी निकाली और रूपा के साथ उसकी घर की ओर चल पड़ा। उसने कहा, ‘‘ जानती हो रूपा मेरा दिल कह रहा था कि आज पापा से कार माँग कर मैं बहुत अच्छा काम कर रहा हूँ। पर ये नहीें जानता था कि मेरा दिल ऐसा क्यों कह रहा है? आज मैं बहुत खुश हूँ।’’ मुस्कुराते हुए रूपा बोली, ‘‘ मुझे भी कहाँ पता था कि विद्यालय के आखिरी दिन भी तुम ही साथ दोगे। अपना ख्याल रखना और आज से तुम मुझे अपना अच्छा दोस्त समझना। मेरा घर आ गया। चलती हूँ और हाँ दिल को जो समझाओगे समझ जाएगा क्योंकि दिल ही तो है।’’


सीमा रानी मिश्रा, हिसार 



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