कभी सीने पर -स्‍वर्ण ज्‍योति

पुस्‍तक दिवस पर विशेष



कभी उन्हें सीने पर रख
नींद में खो जाते
लफ्ज़-लफ्ज़ चुपचाप
ख़्वाब बन जाते 


सफ़ा पलटने में भी
आता था मज़ा
पाक-पकवानों से 
अलग ज़ायका था चखा


तन्हाई में वो 
सच्चा हमसफ़र
साथ रहता 
हर रहगुज़र


नीमरोज़ की धूप में
मिलने का बहाना बनती
जहां की नज़रों से छुपाकर
प्य्यार का पैग़ाम लाती


कभी मुड़ा हुआ कोना
यादों को जगाता
कभी सूखा गुलाब
प्यार को बढ़ाता


ऐनक कभी कलम साथी होते
कोना एक तिपाई काफी होते
अब सब छूट गए
काग़ज़ कलम रूठ गए


अब सीने पर नहीं 
लफ़्ज़ों के ख्वाब
दो उंगलियों के बीच
सिमट कर रह गए हम


और


कमरे के कोने में
काठ की अलमारी से 
झांकती रह गई किताबें
चुपचाप बेबस सी 
अपनों का इंतेज़ार 
करती रह गईं किताबें....



स्वर्ण ज्योति 
पॉण्डिचेरी


 


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