एक अंजुल में अंबर कैसे आएगा.
एक कतरे में समंदर कैसे आएगा.
जिसे मैं कबसे निकाल चुका हूँ,
वो शक़्स,दिल के अंदर कैसे आएगा.
जिसे सागर का रुख ना किया हो,
उसके ज़हन में बवंडर कैसे आएगा.
उसकी तो रब में आस्था ही नहीं,
नाउम्मीदी की गली कलंदर^ कैसे आएगा.
घुमाते रहे तुम मुझे मदारी की ज्यों,
वक़्त बदला "उड़ता ",
तेरे हाथ बंदर कैसे आएगा.
स्वरचित मौलिक रचना.
द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता "
झज्जर (हरियाणा )
संपर्क - 9466865227
0 टिप्पणियाँ